पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । चौo-तात कृपा करि कीजिय साई । 'जा अवध अनाथ न होई । मन्त्रिहि राम उठाइ प्रबोधा । तात धरम-मत तुम्ह सब साधा॥१॥ हे तात! कृपा कर के वही कीजिये जिससे अयोध्या अनाथ न हो । मन्त्री को उठा कर रामचन्द्रजी ने समझाया कि हे तात ! आपने धर्म के सभी सिद्धान्तों की खोज की है अर्थात धर्म के मर्म को अच्छी तरह जानते हे ॥१॥ गुटका में 'धरम-मग' पाठ है, किन्तु सभा और राजापुर की प्रति में 'मत' है। सिबि दधीच हरिचन्द नरेसा । सहे धरम हित कोटि कलेसां। रन्तिदेव बलि भूप सुजाना। धरम धरेउ सहि सङ्कट नाना । देखिये-धीचि मुनि, राजा शिवि और हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिए अपार कष्ट सहे। चतुर भूपाल रन्तिदेव और बलि ने नाना प्रकार के सङ्कटों को सह कर धर्म रक्खा ॥२॥ धर्म-पालन में कष्ट होता ही है और धर्मात्मा प्राणी उसे सहर्ष शिरोधार्य करते हैं। यह व्यज्ञार्थ वाच्यार्थ के घराबर होने से 'तुल्यप्रधान गुणीभूत व्यङ्ग' है। धर्म धरेड में अनुमास है। शिवि, दधीचि और बलि का वृत्तान्त इसी काण्ड के 8वें दोहे के बाद चौथी चौपाई के नीचे और हरिश्चन्द्र का इतिहास ४७ वे दोहे के आगे तीसरी चौपाई के नीचे की टिप्पणी देखिये । राजा रन्तिदेव की कथा श्रीमद्भागवत में बड़े विस्तार के साथ वर्णित है। वे बड़े धर्मात्मा थे, उनकी प्राण और अतिथि सत्कार में अपार श्रद्धा थी। राज्य छोड़ कर स्त्री और पुत्र के सहित राजा वन में तपस्या करने गये। एक बार ४= दिन पर थोड़ा सा भन्न मिला। उसको सिद्ध कर ज्यों ही भोग लगाना चाहा त्यों ही एक क्षधा भिक्षक ने आकर भोजन माँगा। राजा रानी और पुत्र ने प्रसन्नता से अपना अपना भाग उसे दे दिया । उनकी महान् उदारता और धर्मपटुता देख कर विष्णु भगवान् ने प्रसन्न होकर दर्शन दिया तथा उन्हें परम-धाम को भेजा। धरम न दूसर सत्य संमाना । आगम निगम पुरान बखाना ॥ मैं साइ धरम सुलभ करि पावा । तजे तिहूँ पुर अपजस छावा ॥३॥ सत्य के बराबर-दूसरा धर्म नहीं, वेद, शास्त्र और पुराण यही कहते हैं। उसी धर्म को मैं ने सुगमता से पाया, अब इसको त्यागने ले तीनों लोकों में मेरी अपकीर्ति फैलेगी ॥३॥ आप धर्म की सूक्ष्म गति को जानते हैं, मेरा धर्म नं छुड़ाइये यह अर्थान्तर संक्रमित अगूढ़ व्यङ्ग है। सम्भावित कह अपजस लाहू । मरन कोटि सम दारुन दाहू। तुम्ह सन तात बहुत का कहऊँ । दिये उत्तर फिरि पातक लहऊँ ॥४॥ यशवी को कलङ्ग मिलना करोड़ों मृत्यु के बराबर भीषय सन्तोप उत्पन्न करनेवाला है। हे तात ! मैं आप से बहुत क्या कहूँ, फिर आप को उत्तर देने से भी पाप का भागी बनता हूँ॥