पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२१

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रामचरिस-मानस । १६२ अनुमान बल से यह जानना कि यशखी पुरुष को कलक्क मिलना करोड़ों मृत्यु के समान, दुखदाई है, सारोपा लक्षणा द्वारा अनुमानप्रमाण अलंकार है। दो-पितु पद गहि कहि कोटि नति, बिनय करच कर जोरि। चिन्ता कवनिहु बात के, तात करिय जनि मारि ॥६॥ पिताजी के चरणों को पकड़ कर बड़ी नम्रता से हाथ जोड़ कर बिनती कीजियेगा कि, हे तात! आप मेरे लिए किसी बात की चिन्ताम करें।। 8५ ॥ चौ०-तुम्ह पुनि पितु सम अति हित मेरे । बिनती करउँ तात कर जोरे॥ सब विधि सेाइ करतव्य तुम्हारे। दुख न पावपितु सोच हमारे ॥१॥ फिर आप पिताजी के समान मेरे अत्यन्त हितकारी हैं। हे तात ! मैं हाथ जोड़कर बिनती करता हूँ। सब तरह से आपका यही कर्तव्य है कि हमारे लोच से पितोजी दुख को न प्राप्त हो ॥१॥ सुनि रघुनाथ सचिव . सम्बाद । भयउ सपरिजन विकल निषादू ॥ पुनि कछु लखन कही कटु बानी । प्रभु बरजे बड़ अनुचित जानी ॥२॥ रघुनाथजी और मन्त्री को परस्पर कहासुनी सुन कर निषाद अपने कुटुम्बियों सहित, विकल हो गया। फिर लक्ष्मणजी ने कुछ कड़वी बात कही, परन्तु प्रभु रामचन्द्रजीने उसे बड़ा अनुचित जान कर मना किया ॥२॥ लक्ष्मणजी के कटुवचन से रघनाथजी के मन में पिता की मान मर्यादा सोचकर संकोच उत्पन्न होना 'बीड़ा सञ्चारीभाव' है। तत्वानुसन्धान द्वारा उसको अनुचित समझ कर वर्जन करना 'मति सञ्चारीभाव' है। लक्ष्मणजी ने कौन सी कड़ी बात कही ? जब कविजी ने उसे स्पष्ट नहीं किया, तब अधिक कहना उचित नहीं है। सकुचि राम निज सपथ देवाई। लखन सँदेस कहिय जनि जाई । कह सुमन्त्र पुनि भूप सँदेसू । सहिनसकिहिसिय बिपिनि कलेस ॥३॥ रामचन्द्रजी ने सकुचा कर मन्त्री को अपनी सौगन्द देकर कहा कि आप यहाँ जाकर लक्ष्मण का सन्वेशा मत कहियेगा। फिर सुमन्त्र ने राजा का सन्देशा कहा कि वन के कष्ट को सीता न सहन कर सकेंगी॥३॥ जेहिविधिअवधआवफिरिसीया । सोइ रघुबरहि तुम्हहिँ करनीया । नतरु निपट अवलम्ब बिहीना । मैं न जियब जिमि जलबिनु मीना॥४॥ जिस तरह सीता अयोध्या को लौट पावे, वही रघुनाथ को भार तुमको करने योग्य है। नहीं तो विलकुल भाधारहीन होने से मैं उसी प्रकार न जिऊँगा जैले बिना पानी के मछली नहीं जीवित रहती॥४॥