पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२३

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1 रामचरित मानस । १६४ दो०--आरति-बस सनमुख अयउँ, बिलग न मानब तात । आरज-सुत-पद-कमल बिनु, घोदि जहाँ लगि नात ॥९॥ हे तात ! मैं दुःस के अधीन होकर सामने हुई हूँ इसके लिए मिन-भाव न मानियेगा। आर्यपुत्र (रामचन्द्रजी) के चरण-कमलों के बिनो जहाँ तक नाते हैं, वे सब व्यर्थ हैं ॥३७॥ जो बात पिता, ससुर और गुरु के सामने न कहनी चाहिए, वह विपत्ति के वश कहती हूँ क्षमा कीजियेगा। विना रामचन्द्रजी के सव नाते व्यर्थ है । यहाँ दोहे के पूर्वार्द्ध में काकु से वर्जन व्यजित होता है कि मेरा लन्देशा सास-ससुर से यथातथ्य कहने योग्य नहीं है। आप मेरे पिता और ससुर के समान हितकारी है, कृपया सुधार कर कहियेगा। यह 'व्यञ्जना मूलक काकुविशेष व्यङ्ग' है। इसी से सुमन्त्र ने राजा से सीताजी का सन्देशा कुछ नहीं कहा, केवल "कहि प्रनाम कछु कहन लिय. सिय भह सिथिल सनेह इतने ही में समान कर दिया। चौ०-पितु-बैभव-धिलास मैं डीठा । नृप-मनि-मुकुट मिलत पदपीठा॥ सुख-निधान अस पितु-गृह मारे । पिय बिहीन मन भाव न मारे॥१॥ मैं ने पिता के ऐश्वर्य का आनन्द देखा है कि राजशिरोमणियों के मुकुट उनके बड़ाऊँ पर मिलते हैं अर्थात् सम्राट् लोग उन्हें प्रणाम करते हैं। ऐसा सुख का भण्डार मेरे पिता का घर है, परन्तु प्राणनाथ के बिना वह भूल कर भी मेरे मन में नहीं सुहाता ॥१॥ ससुर चक्कवह कोसलराज । भुवन चारि-दस · प्रगट प्रभाऊ ॥ आगे होइ जेहि सुरपति लेई । अरध सिंहासन आसन देई ॥२॥ अयोध्या के चक्रवर्ती राज श्वसुर हैं जिनकी महिमा चौदह लोकों में विख्यात है। जिन्हें इन्द्र भागे होकर लेता (स्वागत करता है और अपने आधे सिंहासन को बैठने के लिए देता है ॥२॥ चक्रवती कोशलराज का प्रभाव चौदहों लोकों में प्रसिद्ध है, इस विशेष बात का साधा रण उदाहरण से सर्मथन करना कि जिनका देवराज आगे से उठ कर स्वागत करते हैं और अपने सिंहासन पर बैठाते हैं अर्थान्तास अलंकार' है। ससुर एतास अवध निवासू । प्रिय परिवार मातु सम सासू ॥ बिनु रघुपति-पद-पदुम-परागा। मोहि कोउ सपनेहुँ सुखद न लागा॥३॥ ऐसे प्रभावशाली मेरे ससुर और अयोध्यापुरी का रहना जहाँ प्यारे कुटुम्बीजन एवम् माता के समान सासु हैं । विना रघुनाथजी के चरण-कमल की धूलियों के मुझे कोई स्वप्न में भी सुखदायक नहीं लगते ॥३॥