पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड अगम पन्थ बन भूमि पहारा । करि केहरि सर सरित अपारा ॥ कोल किरात कुरङ्ग बिहङ्गा । मेहि सब सुखद प्रानपति सङ्गा ॥४॥ वन मार्ग, धरती और पहाड़ दुर्गम हैं, वहाँ असंख्यौ हाथी, सिंह, तालाव तथा नदियों हैं। कोल, भोल, मृग, पक्षी सब मुझे प्राणनाथ के साथ सुखदायी हैं ॥४॥ दुःलदायी वस्तुओं को प्राणपति के सङ्ग से सुखदाई मानना 'श्रनुज्ञा अलंकार' है। दो०-सासु ससुर सन मोरि हुति, बिनय करबि परि पाय। मारि सोच जनि करिय कछु, बन सुखी सुभाय ॥८॥ मेरी ओर से सासु-ससुर के पाँव पड़ कर बिनती कीजियेगा कि मेरा सोच करेंगे, मैं वन में स्वाभाविक सुखी रहूँगी neel चौ०- माननाथ प्रिय देवर साथा । बीर-धुरीन धरे धनु भाथा ॥ नहिँ मग सम भ्रम दुख मन मारे। मोहि लगिसोचकरिय जनिभारे ॥१॥ मैं प्राणनाथ और प्यारे देवर के साथ हूँ, जो धनुष-बाण धारण किये हुए धुरन्धर शूर- बीर हैं । रास्ते की थकावट का भ्रम-पूर्ण दुःख मेरे मन में नहीं है, इसलिए भूल कर भी मेरे बास्ते सोवन करेंगे ॥१॥ 'भाथा' शब्द में मुख्यार्थ बाध हो कर वाण लक्षणा है । सभा की प्रति में 'धीर धुरीन' पाठ है, किन्तु गुटका और राजापुर की प्रति में 'पीर-धुरीन' है। सुनि सुमन्त्र सिय-सीतलि-बानी । भयउ बिकल जनु फनि-मनि-हानी॥ नयन सूझ नहिँ सुनइ न काना । कहि न सकइ कछु अति अकुलाना १२॥ सीताजी की शीतल वाणी को सुन कर सुमन्त्र व्याकुल हो गये, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों साँप की मणि खो गई हो। न आँख से उन्हें सूझता है, न कान से सुनते हैं, बहुत घबरा गये कुछ कह नहीं सकते ॥२॥ शीतल वाणी से सुमन्त्र का सन्तप्त होना द्वितीय असहति अलंकार है। राम प्रबोध कीन्ह बहु भाँती । तदपि होति नहिँ सीतल छाती ।। जतन अनेक साथ हित कीन्हे । उचित उत्तर रघुनन्दन दीन्हे ॥३॥ रामचन्द्रजी ने बहुत तरह से समझाया तो भी उनकी छाती ठण्डी नहीं होती है। साथ चलने के लिये अनेक उपाय किये, परन्तु रघुनाथजी ने उचित उत्तर दिये (कि पिताजी व्या- कुलता से आप की राह देखते होंगे, ऐसी दशा में आप का मेरे साथ चलना अनर्थमूलक होगा) ॥३॥ मेटि जाइ नहिँ राम रजाई । कठिन करम गति कछु न बसाई ॥ राम-लखन सिय पद सिर नाई। फिरेउ बनिक जिमि मूर गँवाई ॥४॥ रामचन्द्रजी की श्राक्षा मेटी नहीं जाती, कर्म की गति कठिन है उस पर कुछ वश नहीं। ५8