पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ६६९ संसार-समुद्र से पार कर फिर प्रसन्न हो प्रभु रामचन्द्रजी को गङ्गाजी के उस पार ले गया।॥ १०१॥ प्रभु को पार उतारने के पहले ही अपने पितरों को संसार-सागर से पार कर दिया। कारण से प्रथम ही कार्य का प्रकट होना अत्यन्तातिशयोक्ति अलंकार' है। चौ०-उतरि ठाढ़ भये सुरसरि-रेता। सीय रोम गुह लखन समेता ।। केवट उतरिदंडवत कीन्हा। प्रभुहि सकुच एहि नहिँ कछु दीन्हा ॥१॥ सीताजी, लक्ष्मण और गुह-निषाद के सहित नाव से उतर कर रामचन्द्रजी गङ्गाजी की रेत में खड़े हो गये। तव चरण धोनेवाले–मलाह ने उतर कर दण्डवत किया, प्रभु राम- चन्द्रजी के मन में संकोच हुआ कि इसको मैं ने कुछ दिया नहीं ॥ १ ॥ पिय हिय की सिय जाननिहारी । मनि-मुंदरी मन-मुदित उतारी ॥ कहेउ कृपालु-लेहु उतराई । केवट चरन गहे अकुलाई ॥२॥ सीताजी प्रीतम के हृदय को बात जाननेवाली हैं, प्रसन्न मन से मणि की अंगूठी उत्तार कर स्वामी को दे दी । कृपालु रामचन्द्रजी ने कहा कि उतराई लो, तब उस केवट ने घबरा कर चरणों को पकड़ लिया ॥२॥ रामचन्द्रजी ने कुछ कहा नहीं, केवल मन में विचार किया और सीताजी ने उनका तात्पर्य समझ लिया, तुरन्त मुद्रिका स्वामी के हाथ में दे दो 'पिहित अलंकार है। नाथ आजु. में काह न पावो । मिटे दोष-दुख-दारिद-दावा ॥ बहुत काल में कोन्हि मजूरी । आजु दीन्ह बिधि बनि भलि भूरी ॥३॥ वह मल्लाह कहने लगा--हे नाथ! आज मैं ने क्या नहीं पाया ? मेरे दोष, दुःख और दरिद्र की भाग मिट गई । मैं ने बहुत काल पर्यन्त मजूरी किय पर विधाता ने श्राज पूर अच्छी बनी दिया ॥३॥ जब कि मेरे दोष, दुःख और दरिद्र का दावानल मिट गया, तब मैं ने क्या नहीं पाया ? वक्रोक्ति द्वारा काव्यार्थापत्ति की ध्वनि है कि रत्नादि उसी के भीतर आ गये। मैं सब कुछ . पा गया अब कछु नाथ न चाहिय मारे । दीन दयाल अनुग्रह तारे ॥ फिरती बार मोहि जो देवा । सो प्रसाद मैं सिर धरि लेबा ॥४॥ हे दीनदयाल नाथ ! आप की कृपा से अब मुझे कुछ न चाहिए। लौटती वेर जो मुझे दीजियेगा, वह प्रसाद मैं सिर पर धारण कर के लूँगा ॥ ४॥ केवट के कथन, में लक्षणामूलक गूढ़ व्यङ्ग है कि अभी श्राप वन जाते हैं इससे कुछ लेना ठीक नहीं, जब राजधानी को लौट भाइयेगा तब जो कुछ दोजियेगा मैं प्रसाद रूप उसको 'शिरोधार्य करूंगा।