पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३५

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४७४ रामचरित मानस । सीय लखन जन सहित सुहाये । अति रुचि राम मूल फल खाये। भये बिगत-खम राम सुखारे । भरद्वाज सुदु-वचन उचारे ॥२॥ सीताजी, सदनराजी और लेवज्ञ गुह के सहित रामचन्द्रजी ने सुन्दर मूल-फल को बड़ी रुचि के साथ खाया । थकावट दूर हो गई, जब रामचन्द्रजी सुखी हुए, तव भरद्वाज मुनि कोमल वचन बोले । आजु सुफल तप तीरथ त्यागू । आजु सुफल जप जोग बिरागू । सफल सकल सुभ-साधन-साजू । राम तुम्हहिँ अवलोकत आजू ॥३॥ आज मेरी तपस्या, तीर्थ-निवास और त्याग फलदायक हुना, अप, योग और वैराग्य आज ही सुन्दर फल देनेवाले हुए। हे रामचन्द्रजी ! आम श्राप के दर्शन से सम्पूर्व शुभ- साधनों की सामाग्रयाँ लफल हुई । तप, तीर्थवास, त्याग, जप, योग, वैराग्य और समस्त सत्कर्मों के उत्कृष्ट गुणों की समता एक रामचन्द्रजी के दर्शन में इकट्ठी करनी 'तृतीय तुल्ययोगिता अलंकार है। लाभ-अवधि सुख-अवधि न दूजी । तुम्हरे दरस आस सब पूजी । अब करि कृपा देहु बर एहू । निज-पद-सरसिज सहज सनेहू ५४ (आप के दर्शन से वह कर ) लाभ का हद् और सुख की सीमा दूसरी नहीं है। आप के दर्शन ले मेरो लय श्राशा पूरी हो गरी । अब कृपा कर के यह वर दीजिए कि आपके चरण कमलों में मेरा स्वाभाविक स्वेह बना रहे Men लाभ और सुख का हद दूसरा नहीं, एक श्राप का दर्शन ही है। दोनों के धर्म अत्यन ले निषेध रामदर्शन में स्थापित करमा पर्यस्तापति अलंकार' है। दो-करम बचन मन छाड़ि-छल, जब लगि जन न तुम्हार । तब लगि सुख सपनेहु नहीं, किये कोटि उपचार ॥१०॥ कम , बबन और मन से छल छोड़कर जब तक मनुष्य आप का दास नहीं होता, तब तक करोड़ों उपाय करने पर लपने में भी सुख नहीं पाता ॥१०॥ चौल-सुनि मुनि बचन राम सकुचाने । प्राव भगति आनन्द अघाने में तन्न रघुबर मुनि सुजस सुहावा । कोटि भाँति कहि सबहि सुनावा ॥१॥ मुनि के वचन सुन कर रामचन्द्रजी सकुचा गये, भाव-भकि और आनन्द से प्रधा गये! तब रघुनाथजी ने भवानमुनि का सुन्दर यश बहुत वरह कह कर सब को सुनाया ॥ सो बड़ सो सब गुन-गन-गेहू । जेहि मुनीस तुम्ह आदर देहू । मुनि रघुबीर परसपर नवहीं । बचन-अगोचर सुख अनुभवहीं । रामचन्द्रों ने कहा-हे मुनीश्वर वहावड़ा और वही सब गुण-समूह का स्थान है