पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५३८

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । g७७ सकल कथा तिन्ह सबहिँ सुनाई । बनहिँ चले पितु आयसु पाई सुनि सबिषाद सकल पछिताही । रानी राय कोन्हि भल नाहीं ॥३॥ सम्पूर्ण स्था उन्होंने सब से कह सुनाई कि पिता की नाज्ञा से वन को चले जा रहे हैं । सुन कर सप दुःखी हो पछताते हैं कि राजा-रानी ने अच्छा नहीं किया ॥३॥ अत्यन्त सुकुमारता देख कर ग्राम-बासी स्त्री-पुरुषों के मन में चिन्ताजन्य मनोमग का होना 'विपोद.समचारीभाव है। तेहि अवसर एक तापस आवा । तेज-पुज. लघु-बयस सुहावा ॥ कबि-अलखित-गति बेष बिरागी। मन क्रम बचन राम-अनुरागी ॥४॥ उसी समय एक तपस्वी आया, वह तेज की राशि, सुहावना और थोड़ी अवस्था का है। उसकी गति कात्रि (अन्यकर्ता) के लख में नहीं पाती है; उसका वेश वैरागी का है और मन, कर्म, पचन से रामानुरागी है ॥ ४ ॥ इस तपस्वी की कथा को बहुत लोग दोपक कहते हैं। यहाँ तक कि अवधबासी लाला सीताराम यी० ए० जिन्होंने गोसाई जी के हाथ की लिखी राजापुर की प्रति से अक्षरशः मिलान कर उसकी प्रतिलिपि छपवाई है, उन्होंने लिख मारा है कि यह प्रसङ्ग बेढली रीति से धुसा हुआ है । जव गोस्वामीजी के हाथ की लिखी प्रति में यह पाठ वर्तमान है; तब हम यह नहीं समझते कि किसी को क्षेपक वा वेदना कहने का कौन सा अधिकार है ? रही यह बात कि आखिरकार वह तपस्वी कौन था ? इस विषय में स्वयम् ग्रन्थकार लिखते हैं कि उसकी गति कवि को अलक्षित है अर्थात् मैं नहीं कह सकता कि वह कौन है। परन्तु कथक्कड़ लोग यहाँ भी अपनी टाँग अड़ाये बिना नहीं रह सके हैं। कोई वहाँ के कामदनाथ महादेव को, कोई भराज मुनि के शिष्यों को, कोई गोसाई जी को ध्यान में जाना कहते हैं और कोई अग्नि को बताते हैं; किन्तु जिसे ग्रन्थकर्ता ही अनिश्चित करते हैं, दूसरों के लिए उसका निश्चय करना सर्वथा असम्भव है। दो०-सजल नयन तन पुलकि निज, इष्टदेउ . पहिचानि । परेउ दंड जिमि धरनितल, दसा न जाइ बखानि ॥११०॥ अपने इष्टदेव को पहचान कर उस तपस्वी का शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया! डण्डे जैसा पृथ्वीतल पर गिरा, उसकी दशा कहीं नहीं आती है ॥११॥ प्रेम से तपस्वी को रोमाञ्च, स्वरभक, अश्रु और स्तम्भ श्रादि सात्विक अनुभावों का उदय है। चौ०-राम सप्रेम पुलकि उर लावा । परम रङ्क जनु पारस पावा ॥ भनहुँ प्रेम परमारथ दोऊ । मिलत्त घरे तन कह सब कोऊ ॥१॥ रामचन्द्रजी ने प्रेम से 'पुलकित होकर उसको दृदय से लगा लिया, वह ऐसा प्रसन्न .