पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४७६. चौ०--पुनि सिय-राम-लखन कर जोरी । जमुनहि कीन्ह प्रनाम बहारी ॥ चले ससीय मुदित दोउ माई । रबितनुजा कइ करत बड़ाई ॥१॥ फिर सीताजी, रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी ने हाथ जोड़ कर यमुना को फिर से प्रणाम किया। दोनों भाई प्रसन्नता पूर्वक सीताजी के सहित यमुनाजी की बड़ाई करते हुए चले ॥१॥ पथिक अनेक मिलहि मग जाता । कहहिँ सप्रेम देखि दोउ भ्राता। राज-लछन सब अङ्ग तुम्हारे । देखि सोच अति हृदय हमारे ॥२॥ रास्ते में जाते हुए बहुतेरे यात्री मिलते हैं, वे दोनों भाइयों को देख कर प्रेम से कहते हैं कि आप लोगों के अङ्ग में सब राजलक्षण देख कर हमारे हृदय में बड़ा सोच होता है ॥२॥ इस बात के कहनेवाले पथिक ज्योर्विद हैं, इसलिए वे आश्चर्य मानते हैं। मारग चलहु पयोदेहिँ पाये । ज्योतिष कूठ हमारेहि माये ॥ अगम पन्थ गिरि कानन भारी। तेहि महँ साथ नारि सुकुमारी ॥३॥ श्राप लोग पाँव से पैदल ही रास्ताचलते हैं, इससे हमारी समझ में ज्योतिष शास्त्र झूठा प्रतीत होता है। भारी जंगल और पहाड़ का मार्ग बड़ा दुर्गम है, उस पर श्राप के संग में कोमलाङ्गी बाला है ॥३॥ पूर्वाद्ध में आप पैदल चलते हैं इससे मेरे विचार से (मानो) ज्योतिष शास्त्र ही झूठा गम्योत्प्रेक्षा अलंकार' है । अत्यन्त सुकुमारता कारण और दुर्गम वन-पहाड़ का रास्ता चलना कार्य दोनों भिन्न रूप होने से 'द्वितीय विषम अलंकार' है। करि केहरि बन जाइ न जाई । हम सँग चलहिं जो आयसु हाई ॥ जाब जहाँ लगि तहँ पहुँचाई। फिरब बहोरि तुम्हहिँ सिर नाई ॥४॥ हाथी और सिंह इस वन में रहते हैं जो देखा नहीं जाता (वहाँ बड़ा खतरा है) यदि आशा हो तो हम साथ चले। जहाँ तक जोइयेगा वहाँ पहुँचा कर फिर आप को सिर नपाकर लौट श्रावेंगे ॥४॥ दो-एहि बिधि पूछहि प्रेम-वस, पुलक-गात जल-नन । कृपासिन्धु फेरहिँ तिन्हहिँ, कहि बिनीत मृदु-बैन ॥११२॥ इस तरह (यात्री-गण) पुलकित शरीर ले नेत्रों में जल भर कर प्रेम वश पूछते हैं और कृपासिन्धु रामचन्द्रजी नम्रता-पूर्वक कोमल वाणी कह कर उन्हें फेरते हैं ॥११२॥ चौ०-जे पुर गाँव बसहि मग माहीं। तिन्हहिँ नाग-सुर नगर सिहाहीं। केहि सुकृती केहि घरी बसाये । धन्य पुन्य मय परम सुहाये ॥१॥ रास्ते में जो नगर और गाँव बसे हैं उनकी बड़ाई नागों को पुरी और देवलोक करते हैं। वे कहते हैं कि किस पुण्यात्मा ने किस घड़ी में बसाया था, ये परम सुहावने पुण्य के रूप धन्य हैं॥