पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४२

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द्वितीय सेापान, अयोध्याकाण्ड । ४८१ राम-लखन-सिय रूप निहारी। पाइ नयन-फल हाँहिँ सुखारी ॥ सजल-बिलोचन पुलक-सरीरा । सब भये मगन देखि दोउ बीरा ॥२॥ रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के रूप को देख आँखों का फल पाकर सुखी होते हैं। दोनों वीरों को देख कर सब के नेत्रों में जल भर आया, शरीर पुलकित हो गया और प्रेम में मग्न हो गये ॥२॥ ग्राम निवासियों के मन में अनुराग से अश्रु, रोमाञ्च, प्रलय और स्वरमा सात्विक अनुभावों का उदय है। इसी काण्ड में ११० वे दोहे के आगे चौथी चौपाई का तीसरा चरण 'राम लखन-सिय रूपी निहारी' यथातथ्य है। बरनि न जाइ दसा तिन्ह केरी । लहि जनु रङ्कन्ह सुरमनि-ढेरी ॥ एकन्ह एक बालि सिख देहीं । लोचन लाहु लेहु छन एही ॥३॥ उनकी दशा कही नहीं जाती है, ऐसे प्रसन्न मालूम होते हैं मानों कझालो ने चिन्तामणि की राशि पाई हो । एक दूसरे को बुला कर शिक्षा देते हैं कि इस क्षण नेत्रों का लाभ लेनो ॥३॥ रामचन्द्रजी का दर्शन उपमेय और देवमणि की ढेरी पाना उपमान है। पुस्तकों में देवमणि की चर्चा है किन्तु संसार में वह देखने में नहीं आती। उसका मिलना वह भी एक दो नहीं राशि, फेवल कवि की कल्पना मान 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। रामहिँ देखि एक अनुरागे । चितवत चले जाहि सँग लागे । एक. नयन-मग छबि उर आनी । होहि सिथिल-तन-मन-बर-मानी ॥४॥ कोई रामचन्द्रजी को देख कर प्रेमासक्त हुए उन्हें निहारते सङ्ग लगे चले जाते हैं। कोई खिों की राह से उनकी छवि को हृदय में लोकर शरीर, मन और उत्तम वाणी से विह्वल (ध्यानावस्थित) हो जाते ॥४॥ दो-एक देखि बठ-छाँह भलि, डासि मृदुल तुन पात। कहहिँ गँवाइय छिनक सम, गवनब अबहिँ कि प्रात ॥११॥ कोई बड़ के पेड़ की अच्छी छाया देख वहाँ नरम घास पत्ते बिछा कर कहते हैं कि एक क्षण थकावट मिटा लीजिये फिर चाहे अमी अथवा सबेरे चले जाइयेगा ॥११॥ चौ०-एक कलस मरि आनहिँ पानी । अँचइय नाथ कहहिँ मुटु बानी सुनि प्रिय बचन प्रीति अति देखी। राम कृपाल सुसील बिसेषी ॥१॥ कोई घड़ा भर कर पानी ले आते हैं और कोमल वाणो से कहते हैं कि हे नाथ ! जल- पान कर लिजिये । उनके प्रिय. वचन सुन और अत्यन्त प्रेम देख कर कृपालु रामचन्द्रजी बड़े ही अच्छे शीलवान हैं ( स्वीकार करते हैं) ॥१॥