पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४३

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रामचरित-मानस । १८२ जानी स्वमित सीय मन माहीं। धरिक बिलम्ब कीन्ह बट-छाहीं ॥ मुदित नारि नर देखहिँ साभा । रूप अनूप नयन मन लामा ॥२॥ मन में सीताजी को थकी हुई जोन कर घड़ी भर बड़ की छाँह में देरी (विभाम) किया। स्त्री-पुरुष प्रसन्न होकर शोभा देखते हैं, अनुपम रूप में उनके नेत्र और 'मन लुभा गये हैं ॥२॥ एक-टक सख साहहिं चहुँओरा । रामचन्द्र-मुख-चन्द चकोरा । तरुन-तमाल-बरन तनु साहा । देखत कोटि मदन मन मोहा ॥३॥ सब टकटकी लगाये हुए रामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा को चकोर रूप होकर निहारते हुए चारों ओर शोभित हो रहे हैं । नवीन तमाल-वृत्त के रक्षका शरीर (श्याम) सोहता है, जिसको देखते ही करोड़ों कामदेव मन में मोहित हो जाते हैं ॥३॥ दामिनि-बरन लखन सुठि नीके । नखसिख सुभग भावते जी के ॥ मुनि-पट कटिन्ह : कसे तूनीरा । साहहि कर-कमलनि धनुतीरा ॥४॥ बिजली के रङ्ग के समान लक्ष्मणजी नख से शिखा पर्यन्त बहुत ही अच्छे सुन्दर मन को सुहानेवाले हैं। दोनों बन्धु मुनियों के वस्त्र कमरों में कसे हैं और हाथ रूपी कमलों में धनुष और बाण शोभित हो रहे हैं ॥४॥ हाथ में धनुष-वाण सोहना न कह कर उपमान कमलों में कहना अर्थात् उपमेय द्वारा, की जानेवाली क्रिया को उपमान द्वारा किया जाना कथन 'परिणाम अलंकार है। दो०-जटा मुकुट सीसनि सुभग, . उर-भुज-नयन-बिसाल । सरद-परब-बिधु-बदन बर, लसत स्वेद-कन-जाल ॥११५॥ मस्तकों पर सुन्दर जटाओं के मुकुट हैं, छाती. भुजाय और नेत्र विशाल हैं। शरदकाल के पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान उत्तम मुख पर पसीने की वू'दों की पंक्तियाँ शोभित हो रही हैं ॥११॥ 'चौ० बरनि न जाइमनोहर जोरी । सोभा बहुत थोरि मति मारी। राम लखन सिय सुन्दरलाई । सब चितवहिचित मन मति लाई ॥१॥ यह मनोहर जोड़ी बखानी नहीं जा सकती, क्योंकि शोभा बहुत है और मेरी बुद्धि थोड़ी है। रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुन्दरता सब चित्त, मन एवम् मति लगा कर निहारते हैं ॥१॥ शोभा अधिक और बुद्धि अल्प होनेसे उसका वर्णन असम्भव ठहराना 'अल्प अलंकार' है। धके नारि नर प्रेम प्रियासे । मनहुँ मृगीमृग देख दिया से ॥ सीय समीप ग्रामतिय जाही। पूछत अति सनेह सकुचाहीं ॥२॥ प्रेम के प्यासे स्त्री-पुरुष मोहित हो रहे हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों हरिण और हरिणी दीपक से मुग्ध हुए हों। गाँव की स्त्रियाँ सीताजी के समीप जाती हैं, परन्तु अत्यन्त स्नेह के कारण पूछते हुए लजाती हैं ॥२॥