पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४८५ मिटा मोद मन भये मलीने । विधि निधि दोन्ह लेत जनु छीने । समुझि करम-गति धीरज कीन्हा । सोधिसुगममग तिन्हकहि दोन्हा ॥४॥ आनन्द मिट गया; मन में उदाल हुए, उन्हें ऐसा मालूम होता है मानों विधाता सम्पत्ति देकर छीने लेता है । फर्म की गति समझ कर धीरज धारण किया और सोच कर उन्हें सीधा रास्ता बता दिया 80 दो०-लखन-जानकी-सहित तब, गवन कीन्ह रधुनाथ । फेरे सब प्रिय बचन कहि, लिये लाइ मन साथ ॥११॥ तब लक्ष्मणजी और जानकीजी के सहित रघुनाथजी ने यात्रा किया। सब को प्रिय वचन कह कर लौटाया और उनके मन को अपने साथ में ले लिया ॥११॥ चौ०-फिरत नारि-नर अति पछि ताहीं । दइअहि, दोष देहि मन माहीं। सहित बिषाद परसपर कहहीं। बिधि करतब उलटे सब अहही ॥१॥ फिरते हुए स्त्री-पुरुष बहुत पछताते हैं और मन में दैव को दोष देते हैं वे आपस में विषाद के साथ कहते हैं कि विधाता के सभी कर्तव्य उलटे हैं ॥ १ ॥ निपट निरङ्कुस निठुर निसङ्क । जेहि ससि कीन्ह सरुज सकलङ्क रूख-कलपत्तरु सागर खारा । तेहि पठये बन राजकुमारा ॥२॥ विधाता विल्कुल स्वतंत्र, निर्दय और निडर है जिसने चन्द्रमा को रोगी एवम् कलङ्को बनाया । कल्पवृक्ष को पेड़ और समुद्र को खारा किया, उसी ने राजकुमारों को वन में भेजा है ॥२॥ जो दोष केकयी को देना चाहिये वह ब्रह्मा पर लगाना 'द्वितीय असङ्गति अलंकार' है। जिसने चन्द्रमा को रोगी-सदोष, कल्पतरु को वृक्ष और समुद्र को खारा बनाया, उसी ने ऐसा किया, सम्भव प्रमाण अलंकार है। जौं पै इन्हहिँ दीन्ह बनबासू । कीन्हि बादि बिधि भोग-बिलासू ॥ ये बिचरहिँ मग बिनु पदनाना । रचे बादि बिधि बाहन नाना १३॥ यदि इन्हें वनबास दिया तो विधाता ने भोग विलास व्यर्थ ही बनाया । ये विना पनहीं के रास्ता चलते हैं तो नाना प्रकार की सवारियों को ब्रह्मा ने नाहक रवा ॥३॥ ये महि परहिँ डालि कुस पाता। सुभग-सेज कत सुजत बिधातो । तरुबर-बास इन्हहिँ बिधि दीन्हा । धवल-धाम रचि रचि सम कीन्हा॥४॥ ये कुश और पत्ता बिछा कर धरती पर सोते हैं तो न जाने सुन्दर पलँग विधाता किस लिये बनाता है। इन्हें वृक्ष के नीचे ब्रह्मा ने निवास दिया तब सफेद महलों को बना कर न्यर्थ ही परिश्रम किया ॥४॥