पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५४९

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। । रामचरितमानस । १८ कहहिँ एक अति अल नरनांहू । दीन्हु हमहिं जेइ लेोचन लाहूं। कहहिँ परसपर लोग लुगाई। बातें सरल सनेह सुहाई ॥२॥ कोई कहते हैं कि राजा बहुत अच्छे हैं जिन्हों ने हमें नेत्रों का लाभ दिया। इस प्रकार स्त्री-पुरुष आपस में सुन्दर स्नेह से भरी सीधी बातें कहते हैं ॥२॥ व्यङ्गार्थद्वारा राजा का रामचन्द्रजी को वनवास देना होष रूप है,परन्तु अपने दर्शन-शाम से उसको गुण रूप मानना 'अनुशा अलंकार' है। ते पितु-मातु धन्य जिन्ह जाये। धन्य सेो नगर जहाँ ते आये । धन्य सी देस-सैल-बन-गाऊँ । जहँ जहँ जाहिँ धन्य सोइ ठाऊँ ॥३॥ वे पिता-माता धन्य हैं जिन्हों ने इन्हें उत्पन्न किया और वह नगर धन्य है जहाँ से ये आये हैं। वह देश, पर्वत, वन, गाँव और जहाँ जहाँ जाते हैं वह स्थान धन्य है ॥६॥ सुख पायउ बिरचि रचि तेही । ये जेहि के सब भाँति सनेही ॥ राम-लखन-पथि कथा सुहाई । रही सकल मग कानन छाई ॥१॥ जिनके ये सब तरह से स्नेही है उन्हें रच कर विधाता ने सुख पाया । रामचन्द्र जी और लक्ष्मणजी दोनों पथिकों की सुहावनी कथा सम्पूर्ण रास्ते में और वन में छा रही है ॥४॥ भाग और वन बड़ा आधार है, उसमें युगल-वन्धुओं की कथा श्राधेय है । वह सारे देश, समस्त राह, गाँव, नगर, वन में भर गई 'प्रथम अधिक अलंकार' हैं। इनके स्नेहियों की रचना ले ब्रह्मा को सुख मिला, इन वाक्यों से रामचन्द्रजी, सीताजी और लक्ष्मणजी की अपार सुन्दरता एवम् सुकुमारता व्यजित होना 'वाच्यसिद्धाङ्ग गुणीभूत ब्यङ्ग है। दो-एहि बिधि रघुकुल-कमल-रबि, मग लोगन्ह सुख देत । जाहिँ चले देखत बिपिन, सिय सौमित्रि समेत ॥ १२२ ॥ इस तरह रघुवंश रूपी कमल के सूर्य रामचन्द्रजी मार्ग के लोगों को सुख देते हुए सीताजी और सुमित्रा-नन्दन के सहित वन देखते चले जाते हैं ॥१२२॥ चौ०-आगे राम लखन बने पाछे । तापस-बेष बिराजत काछे ॥ उभय बीच सिय साहति कैसे । ब्रह्म जीव विच माया जैसे ॥१॥ आगे रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी पीछे तपस्वियों का वेश धनाये सोहते हैं। दोनों महा पुरुषों के बीच में सीताजी कैसे शोभित हो रही हैं, जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी के बीच सीताजी साहती हैं, इस साधारण बात की विशेष से समता दिखाना कि जैसे ब्रह्म और जीव के बीच में माया शोभित हो 'उदाहरण अलंकार है। इसी से मिलती जुलती अरण्यकाण्ड में छठे दोहे के आंगे दूसरी और पहली चौपाइयो की अर्धालियाँ हैं । यथा-"पागे राम अनुज पुनि पाछे । मुनिवर वेष बने अति काछे ॥ उभय वीच लिय सोहह कैसी । नक्ष जीव विच माया जैसी' । हती है ॥१॥