पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५

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रामचरित मानस । नील-सरोरुह-स्थाम, तरुन-अरुन-बारिज नयन । करउ सो मम उर धाम, सदा छीर-सागर-सयन । 'जिनका शरीर नील-कमल के समान श्याम है औरनवीन लिखे दुए लाल कमल के समान नेत्र हैं, जो सदा क्षीरसागर में शयन करते हैं, वे (विष्णु भगवान् ) मेरे हृदयमन्दिर में निवास करें। जो क्षीर सागर में शयन करते हैं वे हृदय मन्दिर में निवास कर उसे शुद्ध बनावे, परि- कराहर की धनि है । गुण और निवासस्थान कह कर विष्णु का परिचय कराना, किन्तु नाम न लेना 'प्रथम पायोक्ति अलंकार है। कुन्द-इन्दु-सम देह, उमा-रमन करना-अयन । जाहि दोन पर नेह, करउ कृपा मन-मयन ॥ कुन्द के फूल और चन्द्रमा के समान देहवाले, उमावर, दया के स्थान, कामदेव को भस्म करनेवाले, जिन्हें दीनजनों पर स्नेह है, वे (शिवजी मुझ पर) कृपा करें। बन्दउँ गुरु-पद-कज, कृपा-सिन्धु नर-रूप-हरि । महामोह-तम-पुज, जासु बचन-रबि-कर-निकर । मैं गुरुजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूपी हरि है, जिनके वचन रूपी सूर्य की किरणों से प्रधान रूपी अन्धकारसमूह नष्ट हो जाता है। चौ०-बन्दउँ गुरु-पद-पदुम-परागा। सुरुचि-सुबास सरस अनुरागा ॥ अमिय मूरि-मय चूरन चारू समन सकल-भव-रुज-परिवारू ॥१॥ श्रीगुरु महाराज के वरण-क्रमों की धूलि को मैं प्रणाम करता है, जो सुरुचि (प्राप्त होने की उत्करडा ) रूपी सुगन्ध और प्रेम रूपी रस से भरी है । वह अमृत को जड़ से बना हुआ चूर्ण है, जिसके सेवन से संसार- सम्बन्धी रोग (फाम, क्रोधादि) नष्ट हो जाते हैं ॥ १ ॥ सुकृत सम्झु-तन विमल विभूती । मज्जुल मङ्गल-मोद-प्रसूती॥ जन मन मज्जु मुकुर मल हरनी । किये तिलक गुन-गन बस करनी ॥२॥ पुण्य रूपी शङ्कर के शरीर पर शोभित होनेवाली यह स्वच्छ विभूनि है और सुन्दर कल्याण तथा प्रानन्द की माता (उत्पन्न करनेवाली) है। भक्तों के मन रूपी दर्पण की मैल . को दूर करनेवाली है और तिलक करने से सम्पूर्ण गुणों को वश में करनेवाली है ॥२॥ सुकृत में शम्भु तन का आरोप और गुरु-पद-रज में निर्मल विभूति का आरोपए है। प्रथम रूपक के अन्तर्गत दूसरा रूपक उत्कर्ष का हेतु होने से 'परम्परित' है।