पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ४८९ बहुरि कहउँ छबि जसिमन बसई । जनु मधु-मदन मध्य रति उसई ॥ उपमा बहुरि कहउँ जिय जोही। जनु बुध-विधु विच रोहिनि सोही॥२॥ फिर जैसी छवि मेरे मन में बसती है वह कहता हूँ, ऐसा मालूम होता है मानो ऋतुराज और कामदेव के बीच में कामदेव की स्त्री रति शोभित हो । पुनः हृदय में खोज कर उपमा कहता हूँ, सीताजी ऐसी जान पड़ती हैं मानो चन्द्रमा और बुध के बीच में रोहिणी (चन्द्रमा की स्त्री) सोहती हों ॥२॥ ऋतुराज और लक्ष्मणजी, मदन और रामचन्द्रजी, सीवाजी और रवि तथो चन्द्रमा और रामचन्द्रजी, बुध और लक्ष्मणजी, रोहिणी और सीताजी परस्पर उपमान उपमेय हैं। वसन्त और कामदेव मित्र हैं, उनके बीच रति सोहती ही है । चन्द्रमा पिता और बुध पुत्र हैं, पिता पुत्र के बीच रोहिणी शोभित होती ही हैं। यह दोनों 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। प्रभु-पद-रेख बीच बीच सीता। धरति चरन मग चलति समीता । सीय-राम-पद अङ्क बराये। लखन चलहिँ भग दाहिन लाये ॥३॥ प्रभु रामचन्द्रजी के चरण-चिन्हों के बीच बीच में डर कर पाँव रखती हुई सीताजी मार्ग चल रही हैं। सीताजी और रामचन्द्रजी के पद की रेखाओं को बचा कर लक्ष्मणजी वाहनी ओर लगेरास्ता चलते हैं ॥३॥ 'सभीता और दाहिन लाये शब्दों से सीताजी एवम् लदमणजी की धर्मभीरुता व्यजित होती है । सीताजी पाँव रखने में इसलिये डरती जाती हैं कि कहीं खामी के वरचिन्हों पर मेरे पाँव न पड़ जाय । लक्ष्मणजी भी इसी हेतु दाहिनी ओर से चलते हैं कि रामचन्द्रजी और जानकीजी के पत्तो पर मेरा चरण न पड़े। सभा की प्रति में "दाहिन वाँये" पाठ है। किन्तु गुटका और राजापुर की प्रति में दाहिन लाये" है। राम-लखन-सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई । खग-मृग-मगन देखि छवि होही। लिये चोरि चित राम बटोही ॥१॥ रामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुहावनी प्रीति वचनों से प्रगट करने योग्य नहीं, फिर वह कैसे कही जा सकती है। पक्षी और मृग शोभा को देख कर मग्न होते हैं, पथिक रामचन्द्रजी ने उनके चित्तों को चुरा लिये ॥४॥ . दो०-जिन्ह जिन्ह देखे पथिक-प्रिय, सिय समेत दोउ भाइ। भव-मग अगम अनन्द तेइ, बिनु खम रहे सिराइ ॥ १२३ ॥ जिन जिन लोगों ने प्यारे पंथिक दोनों भाइयों को सीताजी के सहित देखे, उनके संसार के दुर्गम मार्ग बिना परिश्रम ही खो गये और वे मानन्दित हुए ॥१२३॥ दैवयोग से रामचन्द्रजी के दर्शन द्वारा अकस्मात भव-मार्ग का मिट जाना 'समाधि . अलंकार है।