पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५२

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । मुनिबर अतिथि प्रान-प्रिय पाये। तब मुनि आसन दिये सुहाये ॥ कन्द भूल फल मधुर मँगाये । सिय-सौमित्रि-राम फल खाये ॥२॥ मुनिवर ने प्राण प्रिय मेहमानों को पाया, तब उन्होंने सुहावना श्रासन दिया । कन्द मूल और फल मीठे मीठे मैंगवाये, सीताजी और लक्ष्मणजी के सहित रामचन्द्रजी ने फल खाये ॥२॥ बालमीकि मन आनंद भारी । मङ्गल-मूरति नयन निहारी॥ तब कर-कमल जोरि रघुराई । बाले बचन स्त्रवन सुखदाई ॥३॥ रामचन्द्रजी की मंगल-मूर्ति आँखों से देख कर वाल्मीकि मुनि के मन में बड़ा अानन्द छुआ, तब रघुनाथजी अपने कर-कमलों को जोड़ कर कानों को सुख देनेवाले वचन बोले ॥३॥ तुम्ह त्रिकाल-दरसी मुनिनाथा । बिस्व बदर जिमि तुम्हारे हाथ ॥ अस कहि प्रभु सब कथा बखानी । जेहि जेहि भाँति दीन्ह बन रानी॥४॥ हे मुनिनाथ ! श्राप त्रिकालदर्शी हैं, संसार घर के फल जैसा आप की मुट्ठी में है। ऐसा कह कर प्रभु रामचन्द्रजी ने सब कथा कही जिस जिस प्रकार रानी ने यन दिया ॥५॥ दो-तात-अचन पुनि मातु-हित, माइ भरत अस राउ । मो कह दरस तुम्हार प्रभु, सब मम पुन्य प्रभाउ ॥ १२५ ॥ पिता की आज्ञा, फिर माता का कल्याण और भरत ऐसे भाई को राज्य । हे प्रभो ! मुझे आप का दर्शन होना यह सब मेरे पुण्यों का प्रभाव है ॥१२॥ एक पिता की श्राशा ही वनबास के लिए पर्याप्त कारण है. तिस पर माता का कल्याण, भाई को राज्य, मुझे आपके दर्शन होने का सौभाग्य अन्य प्रबल हेतुओं का वर्तमान रहना 'द्वितीय समुच्चय अलंकार' है। चौ०--देखि पाय मुनि-राय तुम्हारे । भये. सुकृत सब सुफल हमारे ॥ अब जहँ राउर आयसु होई.। मुनि उदबेग न पावइ कोई॥१॥ हे मुनिराज ! श्राप के चरणों को देख कर हमारे सब सुकृत सुफल हुए । अब जहाँ आप की आशा हो, जिसमें किसी मुनि के बिच को आकुलतान प्राप्त हो ॥१॥ मुनि-तापस जिन्ह त दुख लहही । ते नरेस बिनु पावक दहहीँ ॥ मङ्गल-मूल विप्र-परितापू । दहइ कोटि-कुल भूसुर रोषू ॥ २॥ मुनि और तपस्वी जिन से दुःख पाते हैं वे राज बिना अग्नि के जलते हैं । ब्राह्मण का सन्तुष्ट होना ही मंगल का मूल है, ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ो कुलों को भस्म करता है ॥२॥ • अस जिय जानि कहिय सोइ ठाऊँ। सिय-सौमित्रि-सहित जहँ जाऊँ तह रचि रुचिर परन-तन-साला । बास करउँ कछु काल कृपाला ॥३॥ ऐसा मन में समझ कर वह स्थान बतलाइये जहाँ सीता और लक्षमण के सहित मैं जाऊँ। हे कृपालु । वहाँ पत्ते और घास की सुन्दर कुटी'चना कर कुछ कोल तक निवास करें ॥३॥ >