पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५३

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॥४॥ ४९२ रामचरित मानस । सहज सरल सुनि रघुबर बानी । साधु साधु बोले मुनि-ज्ञानी । कस न कहहु अस. रघुकुल-केतू ! तुम्ह पालक सन्तत खुति-सेतू ॥४॥ रघुनाथजी की सहज सोधी वाणी को सुन कर ज्ञानीमुनि बोले कि सत्य है ! सत्य है। रघुकुल के पताका ! क्यों न ऐसा कहिये ? आप वेद को मर्यादा के निरन्तर पोलनेवाले 'साधु साधु' शब्द में जो व्यङ्ग है, वह क्रमानुसार नीचे स्पष्ट कथन करते हैं। हरिगीतिका-छन्द। त्रुति-सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी । जो सृजति जग पोलति हरति रुख, पाइ कृपानिधान की । जो बहस सीस-अहीस महिधर, लखन सचराचर धनी। सुर काज धरि नरराज तनु चले, दलन खल निसिचर अनी ॥५॥ हे रामचन्द्रजी ! आप चेदों की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकीजी आप की माया है । हे कृपानिधान ! जो भाप का रुन पाकर संसार को उत्पन्न, पालन और संहार करती हैं। जो सहस्र सिरवाले शेष धरणीधर जड़ चेतन के स्वामी हैं, वही लक्ष्मणजी हैं । आप मनुष्य राजा का शरीर धारण कर देवताओं के काय के लिये दुष्ट राक्षसों के समुदाय का नाशं करने चले हैं॥५॥ से-रोम सरूप तुम्हार, बचन अगोचर बुद्धि पर। अबिगत अकथ अपार, नेति नेति नित निगम कह ॥ १२६ ॥ हे रामचन्द्रजी ! आप का स्वरूप वाणी से कहने के योग्य नहीं और बुद्धि से परे है। जानने योग्य, वर्णन के बाहर और लीमा रहित है जिसको वेद सहा इति नहीं, अन्त नहीं कहते हैं ॥ १२६॥ अयोध्याकाण्ड की रचना में प्रत्येक पचीस दोहे पर एक हरिगीतिकाछन्द और एक सोरठा का नियम कविजी ने निबाहा है । परन्तु इस स्थान पर वह नियम भा हुआ है, क्योंकि यह छन्द और सोरठा छब्बीसवै दोहे पर पाया है। आगे सर्वत्र ठीक पचीसधै दोहे घर छन्द सोरठा काण्ड की समाप्ति पर्यन्त आए हैं। चौ०-जग-पेखन तुम्ह देखनिहारे । बिधि हरि सम्भु नचावनिहारे ॥ तेउन जानहि मरम तुम्हारा। अउर तुम्हहिं को जाननिहारा ॥१॥ यह जगत तमाशा है और आप उसके देखनेवाले (दर्शक) हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को नचानेवाले हैं वे (त्रिदेव) भी आप के भेद को नहीं जानते, फिर दूसरा आप को कौन जान- नेवाला है ? ॥१॥