पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । सोइ जानइ जेहि देउ जनाई । जानत तुम्हहिँ तुम्हइ होइ जाई ॥ तुम्हरिहि कृपा तुम्हहिं रघुनन्दन । जानहि भगत भगत उर-चन्दन॥२॥ वही जानता है जिसको आप जना देते हैं और आप को जानते ही वे आप के रूप हो जाते हैं। हे भक्तों के हदय के चन्दन रधनन्दन ! आप ही की कृपा से भक्त-जन आप को जानते हैं ॥२॥ इस चौपाई में पद और अर्थ दोनों की बार बार आवृत्ति होने से 'पदार्थावृत्ति दीपक अलंकार है। 'भगत' शब्द दो बार आया है, किन्तु अर्थ पृथक पृथक होने से यमक अलंकार' चिदानन्द-मय देह तुम्हारी। बिगत-बिकार जान अधिकारी ॥ तनु धरेउ सन्त-सुर-काजा । कहहु करहु जस प्राकृत-राजा ॥ ३ ॥ आपका शरीर चैतन्य और श्रानन्द का रूप है, इसको शुद्ध अन्तःकरण वाले अधिकारी ही जानते हैं । सज्जन और देवताओं के कार्य के लिये आपने मनुष्य, का तन धारण किया है, इसीसे मनुष्य राजा की तरह कहते.और करते हो ॥ ३॥ राम देखि सुनि चरित 'तुम्हारे । जड़ मेाहहिँ बुध होहिं सुखारे । तुम्ह जो कहहु करहु सब साँचा । जस काछिय तस चाहिय नाचा ॥४॥ हे रामचन्द्रजी! आप के चरित्र को सुन कर मूर्ख मोहित होते हैं और ज्ञानवान प्रसन्न होते हैं। आप जो कहते और करते हैं वह सब सत्य है, क्योंकि जैसी कछनी का? वैसी नाच नाचना चाहिये ॥४॥ एक रामचन्द्रजी के चरित्र को देख सुन कर मूखों को प्रधान और बुद्धिमान को प्रसन्नता (शान ) का होना 'प्रथम व्याघात अलंकार' है। . दो०-पूछेहु मोहि कि रहउँ कहँ, मैं पूछत सकुचाउँ । जहँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्हहिँ देखावउँ ठाउँ ॥ १२७ ।। आप ने मुझ से पूछा कि में कहाँ रहूँ किन्तु मैं पूछने में सकुचाता हूँ । जहाँ आप न है। वहाँ कह दीजिये तो आप को मैं स्थान दिखाऊँ ॥ १२७ ॥ रामचन्द्रजी ने पूछा मैं कहाँ रह १ वाल्मीकिजी ने कहा जहाँ आप न हो वह स्थान बत- लाइये तब मैं रहने को जगह बताऊँ अर्थात् आप तो सभी जगह वर्तमान सर्वव्यापी हैं, श्राप से कोई स्थान खाली नहीं है.। यहाँ किये हुए प्रश्न ही उत्तर होने से 'चित्रोत्तर अलंकार' है। चौ०-सुनि मुनि बचन प्रेम-रस-साने । सकुचि राम मन महँ मुसुकाने ॥ बालमीकि हँसि कहहिं बहोरी । बानी मधुर अमिय-रस बोरी ॥१॥ प्रेम रस से भरे मुनि के वचन सुन कर रामचन्द्रजी सकुचा कर मन में मुस्कुराये। फिर चाल्मीकिजी हँस सर अमृत रस से सराबोर मीठी वाणी बोले ॥१॥