पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५५

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रामचरित मानस । सुनहु राम अब कहहुँ निकेता । जहाँ बसहु सिय-लखन-समेता । जिन्ह के सवन समुद्र समाना । कथा तुम्हारि सुभग सरिनाना ॥२॥ हे रामचन्द्र जी ! सुनिये, अब रहने योग्य स्थान कहता है जहाँ सीताजी और लक्ष्मणजी के सहित बसिये। जिनके कान समुद्र के समान हैं और भाप की सुन्दर कथा माना नदियाँ हैं ॥२॥ पहले स्थान बतलाने से इनकार करके कि आप से कोई स्थान खाली ही नहीं है, मैं कौन सी जगह बतलाऊँ। फिर रहने के लिये ठाँच दिखाना 'निषेधाक्षेप अलंकार' है। भरहिं निरन्तर होहिं न पूरे । तिन्ह के हिय तुम्ह कह गृह करे ॥ लोचन चातक जिन्ह करि राखे । रहहिं दरस जलघर अभिलाखे ॥३॥ वे निरन्तर भरती हैं तो भी भरते नहीं, उनके हृदय आप के लिये सुहावने मन्दिर हैं। जिन्हों ने अपने नेत्रों को चातक बना रक्खा है और आप के रूप रूपी मेघ्र के दर्शन के अभि- लाषी रहते हैं ॥३॥ सदा भरते रहने पर भी न भरना विशेपोक्ति अलंकार' है। जिस तरह नदियों के भरने से समुद्र नहीं भरता, उसी तरह आप के गुणों को सुन कर श्रमाते नहीं। इन वालों में 'कृष्टान्त' का भाव है। निदरहिँ सरित-सिन्धु-सर भारी । रूप-बिन्दु-जल होहिँ सुखारी । तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक । बसहु बन्धु-सिय-सह रघुनायक ॥४॥ जो भारी तालाव, नदियाँ और समुद्र का तिरस्कार कर के श्राप के रूप रूपी जल के बुन्द से सुखी होते हैं । हे रघुनाथजी ! उनके हृदय सुखदायी भवन है, सीताजी, लक्ष्मणजी के सहित वहीं बसिये ॥४॥ जैसे पपीहा नदी-समुद्रादि का जल त्याग कर स्वाती के विन्टु मात्र जल से प्रसन्न होता है, तैसे अन्य के रूप हृदय में नहीं लाते ओप की छवि के आभास मात्र से सुखी होते हैं। इन दोनों वाक्यों में बिना वाचक पद के विम्व प्रतिविस्थ भाव झलकना 'इस्टारत अलंकार' है। दो-जस तुम्हार मानस बिमल, हंसिनि जीहा जासु । मुकताहल. गुनगन चुनइ, राम बसहु हिय तासु ॥ १२८ ॥ आप का निर्मल यश मानसरोवर रूप है और जिसकी जिह्वा रूपी हसिनी गुण समूह रूपी मोतियों को चुनती (एक एक कर के इकट्ठा करती ) है, हे रामवन्द्रजी । आप.उसक हृदय में निवास करें ॥ १२॥ चौ०-प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा । सादर जासु लहइ नित नासा । तुम्हहिँ निबेदित भाजन करहीं । प्रभु-प्रसाद पटभूषन घरहीं ॥१॥ पवित्र सुन्दर सुगन्धित (पुष्पादि) आप के प्रसाद को आदर के साथ जिनकी नासिका प्रहण फुरती है। आप को अर्पण कर भोजन करते हैं और स्वामी के प्रसाद रूप वस्त्राभूषण पहनते हैं॥१॥