पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १५ सीस नवहिँ सुर-गुरु-द्विज देखी । प्रीति सहित करि बिनय बिसेखी । कर नित करहिं राम-पद-पूजा । राम-भरोस हृदय नहिँ दूजा ॥२॥ जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मण को देख कर नवते हैं और बड़ी नम्रता के साथ, मिनती करते हैं । जिनके हाथ नित्य रामचन्द्रजी के चरणों की पूजा करते हैं और रामचन्द्रजी को छोड़ कर हदय में दूसरे का भरोसा नहीं रखते ॥२॥ चरन राम-तीरथ चलि जाहीं । राम बसहु तिनके मन माहीं । मन्त्रराज नित जपहिँ तुम्हारा । पूजिहिं तुम्हहिँ सहित परिवारा ॥३॥ जिनके चरण रामतीर्थों में चल कर जाते हैं; हे रामचन्द्रजी ! आप उनके मन में बसिये। जो आप के मन्त्रराज (षडक्षर-वारकमन्त्र) को नित्य जपते हैं और कुटुम्ब के समेत आप का पूजन करते हैं ॥३॥ तरपन होम करहि बिधि नाना । बिग्रजवाइ देहि बहु दाना ॥ तुम्हतँ अधिक गुरुहि जिय जानी । सकल माय सेवहिँ सनमानी ॥४॥ जोतर्पण और नाना प्रकार के हंधन करते हैं, प्रामणों को भोजन करा कर बहुत सा दान देते हैं । श्राप से बढ़कर गुरु को मन में समझते हैं और सब तरह ले सन्मान कर उनकी सेवा करते हैं | दो०-सब करि माँगहि एक फल, राम-चरन रति होउ । तिन्ह के मन-मन्दिर बसहु, सिय-रघुनन्दन दोउ ॥१२॥ सब कर के एक ही फल माँगते हैं कि रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम हो । हे रघुनन्दन ! श्राप उनके मन रूपी मन्दिर में सीताजी और लक्ष्मणजी के सहित वसिये ॥१२॥ चौ०-काम कोह मद मान न मोहा । लाम न छोम न राग न द्रोहा ॥ जिन्ह के कपट दम्भ नहिँ माया । तिन्ह के हृदय बसहु रघुरायां॥१॥ जिन्हें काम, क्रोध, मद, अभिमान और प्रशान नहीं है, न लोम है, न विषयासकि हैन द्रोह है। जिनके कंपट, दम्भ और माया नहीं है, हे रघुनाथजी ! आप उनके हृदय बसिये ॥१॥ सब के प्रिय सब के हितकारी । दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ॥ कहहिँ सत्य प्रिय-बचन-बिचारी । जागत.सोवत सरन तुम्हारी ॥२॥ जो सब के प्यारे और सब के हितकारी है, दुःख, सुख, बड़ाई और गाली वरावर समझते हैं। सत्य और प्रिय वचन विचार कर कहते हैं, जागते सोते आपकी शरण में हैं ॥२॥ दुःख, सुख, प्रशंसा और गोली को समान जानना 'चतुर्थ तुल्ययोगिता अलंकार है।