पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५५८

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द्वितीय सेपिान, अयोध्याकाण्ड १९७ सरग नरक अपबरग समाना । जहँ तह देख धरे धनु बाना ॥ करम-बचन-मन राउर चेरा राम करहु तेहि के उर डेरा॥४॥ जिन्हें स्वर्ग, नरक और मोक्ष बराबर है, जहाँ रहें वहाँ धनुष-बाण धारण किये आपको देखते हैं। हे रामचन्द्रजी ! कम वचन और मन से श्राप के दास हैं उनके हृदय में डेरा कीजिये ॥४॥ दो-जाहि न चाहिय कबहुँ कछु, तुम्ह सन सहज सनेह । बसहु निरन्तर तासु मन, से। राउर निज-गेह ॥१३१ ॥ जिनको कभी कुछ न चाहिए, केवल श्राप से सहज स्नेह चाहते हैं। उनका मन आपका निजी घर है, उसमें निरन्तर निवास कीजिये ॥ १३१ ॥ 'निज गेह' शब्द में लक्षणामूलक व्या है कि जैसे राजा महाराजाओं के बहुत से महल रहते हैं, उनमें वे समयानुसार जाते हैं परन्तु सदा सोने, बैठने के लिये खास महत (विश्राम- गृह) में निवास करते हैं। उसी तरह निष्काम भजन करनेवाले भक्तों के मन आप के रहने के प्रधान भवन है। चौ०-एहि-विधिमुनिबर भवन देखाये । बचन सप्रेम रोम मन भाये ॥ कह मुनि सुनहुभानुकुल-नायक । आस्रम कहउँ समय-सुख-दायक॥१॥ इस तरह मुनिश्रेष्ठ ने घर दिखाये, उनके प्रेम भरे वचन रामचन्द्रजी के मन में अच्छे लगे। मुनि ने कहा-हे सूर्यकुल के स्वामी ! सुनिये, समयानुसार सुखदायी श्राश्रम कहता हूँ॥१॥ करहु निवासू । तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ॥ सेल सुहावन सुहावनः कानन चारू । करि केहरि मुग बिहग बिहारू ॥२॥ चित्रकूट पर्वत पर निवास कीजिये, वहाँ आप को सब तरह सुभीता (बाराम) रहेगा। वह पहाड़ सुहावना और वन सुन्दर है, उसमें हाथी, सिंह, मृग और पक्षियों के झुड विहार करते हैं ॥२॥ नदी पुनीत. पुरान बखानी । अत्रि-प्रिया निज तप-बल आनी ॥ सुरसरि-धार नाउँ मन्दाकिनि । जो सब पातक-योतक-डाकिनि ॥३॥ वहाँ पवित्र नदी है जिसका वर्णन पुराणों ने किया है कि अत्रि मुनि की भार्या (अनुसूया) ने अपनी तपस्या के बल से उसको ले आई हैं । वह गङ्गाजी की धारा मन्दाकिनी नाम है, जो समस्त पाप के बालकों की डाइन है ॥ ३ ॥ डाकिनी (ग्रहवाधा) चालको को नाश करने में प्रसिद्ध है। पाप के बच्चों का नाश करने के लिये उपमान-डाकिनी का गुण उपमेय-मन्दाकिनी में स्थापन करना 'द्वितीय निदर्शना अलंकार' है। चित्रकूट-गिरि ६३