पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६

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प्रथम सोपान, बालकाण्ड । ५ श्रीगुरु-पद-नख मनि-गन-जोती । सुमिरत दिव्य-दृष्टि हिय होती। दलन मोह-तम सासु प्रकासू । बड़े भाग उर आवइ जासू ॥३॥ श्रीगुरु महाराज के चरण-नखों का प्रकाश समूहमणियों का उजाला है, जिसका स्मरण करने से हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है। वह अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य का प्रकाश है । जिसके हृदय में यह प्रकाश आ जाय उसके बड़े भाग्य हैं ॥ ३॥ उघरहि बिमल बिलोचन ही के। मिटहि दोष दुख भव-रजनी के ॥ सूझहिं रामचरित-मनि-मानिक । गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक ॥४॥ इस ज्योति के हृदय में आते ही हृदय के नेत्र खुल जाते हैं और ससार रूपिणी रात्रि के विकार तथा कष्ट मिट जाते हैं। तब रामचरित रूपी मणि-माणिक छिपे हुए जो जहाँ जिस खानि के हैं, ये दिखाई पड़ने लगते हैं ॥ ४॥ दो०-जथा सुअञ्जन अजि दुग, साधक सिद्ध सुजान । कौतुक देखहिँ सैल बन, भूतल भूरि निधान ॥ १ ॥ जैसे चतुर साधक सुन्दर (सिद्धता का ) अमन आँखों में लगा कर सिद्ध हो जाते हैं, फिर पर्वत, वन और पृथ्वीतल के अनन्त स्थानों का खेल देखते हैं ॥१॥ ऊपर कह पाये हैं कि गुरु चरण-नख का सूर्यवत् प्रकाश जिसके हृदय में होता है, उसके अन्तःकरण के नेत्र खुल जाते हैं और गुप्त खानियों में छिपा रामचरित रूपी रत्न उसे 'सूझ पड़ता है। इस बात की समता विशेष से दिखाना कि जैसे चतुर साधक सिद्धाजन आँख में लगा कर पृथ्वी, पन, पर्वत का कुतूहल बैठे बैठे देखता है 'उदाहरण अलंकार' है। चौ०-गुरु-पद-रज मृदु मज्जुल अञ्जन। नयन-अमिय दुग दोष बिभजन । तेहि करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ रामचरित भव-मोचन ॥१॥ गुरुजी के चरणों की धूलि सुन्दर और मुलायम अक्षन है, वह 'नयनामृत' आँख के दोषों का नाश करनेवाला है। उससे ज्ञान रूपी नेत्रों को निमल कर के संसार के आवागमन को छुड़ानेवाला रामचरित मैं वर्णन करता हूँ ॥ १ ॥ बन्दउँ प्रथम महोसुरचरना । माह जनित संसय सब हरना ॥ सुजन-समाज सकल-गुन-खानी । करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी ॥ २ ॥ पहले मैं पृथ्वी के देवता ( ब्राह्मण) के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सम्पूर्ण सन्देहों के हरनेवाले हैं । सज्जनों की मण्डली सारे गुणों को खानि है, मैं सुन्दर वाणी से प्रीति-पूर्वक उसको प्रणाम करता हूँ॥२॥ वन्दुना. तो गणेश, सरखती, शिव-पार्वती आदि कितने ही देवताओं की कर चुके हैं, फिर यहाँ प्रथम कहने का क्या कारण है ? उत्तर-अब तक स्वर्गीय देवताओं की बन्दना