पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । १९९ सभा की प्रति में 'चले सहित सुरपति परधाना' पाठ है। सुरपति के साथ 'परधाना' शब्द निरर्थक प्रतीत होता है, क्योंकि सुरपति देवताओं का प्रधान हई है। गुटका और राजा- पुर की प्रति में 'थपति-प्रधाना' पाठ है। कोल-किरात-बेष सब आये। रचे परन-टन-सदन सुहाये। बरनि न जाहिँ मज्जु दुइ सालो । एक ललित लघु एक बिसाला ॥४॥ सब कोल भीलों के रूप में वहाँ पाये और पत्ते घास को सुहावनी कुटियाँ बनाई। वे दोनों सुन्दर शालाएँ वर्णन नहीं की जा सकती, उनमें एक मनोहर छोटी और दूसरी बड़ी है ॥४॥ दो-लखन जानकी सहित प्रभु, राजत रुचिर निकेत । साह मदन मुनि बेष जनु, रति-रितुराज-समेत ॥ १३३ ॥ लक्ष्मणजी और सीताजी के सहित प्रभु रामचन्द्रजी सुन्दर पर्णशाला में शोभायमान हैं। वे ऐसे मालूम होते हैं मानों मुनि का वेष बनाये बसन्त और रति के सहित कामदेव सेहता हो ॥१३॥ रामचन्द्रजी और कामदेव, लचमणजी और ऋतुराज, सीताजी और रति परस्पर उपमेय उपमान हैं । रति और वसन्त के साथ काम सोहता ही है । यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलं- कार' है। चौ०-अमर नाग किन्नर दिसिपालो। चित्रकूट आये तेहि काला ॥ राम प्रनाम कीन्ह सब काहू । मुदित देव लहि लोचन लाहू ॥१॥ देवता, नाग, किन्नर और दिशिपाल उस समय चित्रकूट में आये । सग किसी ने राम- चन्द्रजी को प्रणाम किया और नेत्रों का लाभ पाकर सुरगण प्रसन्न हुए ॥१॥ बरषि सुमन कह देव-समाजू । नाथ सनाथ अये हम आजू ॥ करि बिनती दुख दुसह सुनाये । हरषित निज निज सदन सिधाये ॥२॥ फूलों की वर्षा कर देव-समाज कह रहा है कि-हे माथ ! अाज हम लोग सनाथ हुए । विनती करके अपना दुस्सह दुःख सुनाये और प्रसन्न होकर अपने अपने घरों को गये ॥२॥ चित्रकूट रघुनन्दन छाये । समाचार सुनि सुनि मुनि आये । आवत देखि मुदित मुनि-वृन्दा । कीन्ह दंडवत. रघुकुल-चन्दा ॥३॥ चित्रकूट में रधुनाथजी के टिकने का समाचार सुन सुन कर ऋषि लोग आये । रघुकुल के चन्द्रमा रामचन्द्रजी मुनि-मंडली को प्राते देखकर प्रसन्नता के साथ प्रणाम किया ॥३॥ मुनि रघुबरहि लाइ उर लेही । सुफल होन हित आसिष देहीं । सिय-सौमित्रि-रामछबि देखहिं । साधन सकल सफल करि लेखहि ॥४॥ मुनिजन रघुनाथजी को छाती से लगा लेते हैं और सफल होने के लिये प्राशीर्वाद देते हैं । सीताजी, लक्षमण मी और रामचन्द्रजी को कृषि देखते हैं जिससे अपने सम्पूर्ण साधनों को सार्थक समझते हैं॥॥