पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६२

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1 द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५०१ चौ० धन्यभूमि बन पन्थ पहारा । जहँ जहँ नाथ पाउ तुम्ह धारा ॥ धन्य बिहग भृग काननचारी । सफल जनम अये तुम्हहिँ निहारी ॥१॥ हे नाथ ! जहाँ जहाँ बाप ने पदार्पण किया वह धरती, वन, रास्ता और पहाड़ धन्य चन में विचरनेवाले पक्षी और मृग धन्य हैं, आप को देख कर इनके जन्म सफल हो गये ॥१॥ हम सब धन्य सहित परिवारा । दीख दरस भरि नयन तुम्हारा ॥ । कीन्ह बास भल ठाउँ बिचारी । इहाँ सकल रितु रहब सुखारी ॥२॥ हम सब परिवार के सहित भाँख भर आप के दर्शन कर के धन्य हुए हैं। अच्छी जगह विचार कर आपने निवास किया, यहाँ सव ऋतुओं में सुखी रहियेगा ॥२॥ हम सब माँति करवि सेवकाई । करि-केहरि-अहि-बाध बराई । बन बेहड़ गिरि कन्दर खोहा । सब हमार प्रभु पग पग जाहा ॥३॥ हम लोग हाथी सिंह, साँप और बाध बरा कर (वर्जन कर के ) सब तरह से सेवा करेंगे। हे प्रभो ! यहाँ बीहड़ वन, पर्वत, गुफाएँ और खोह सब परग परग हमारे देते हैं ॥३॥ जहँ तहँ तुम्हहि अहेर खेलाउब । सर निरझर भल ठाउँ देखोउब ॥ हम सेवक परिवार समेता। नाथ न सकुचन आयसु देता ॥४॥ जहाँ तहाँ आप को शिकार खेलावेंगे तालाब, झरना और अच्छे अच्छे स्थान दिखायेंगे। हे नाथ ! कुटुम्बियों सहित हम आप के सेवक हैं, श्राशा देने में संकोच न कीजियेगा ॥४॥ दो-बेद-बचन मुनि-मन-अगम, ते प्रभु करुना अयन । बचन किरातन्ह के सुनत, जिमि पितु बालक-बयन ॥१३॥ प्रभु रामचन्द्रजी जो वेद वाक्य और मुनियों के मन की पहुँच के बाहर हैं, वे ही दया- निधान किराते की बातें इस तरह सुनते हैं, जैसे पिता बालकों की बातें (भीति से ) सुनता है ॥ १३६॥ जो वेद और मुनियों को दुर्गम हैं, वे किरातों से बातचीत करते हैं। इस वर्णन में 'विरोधाभास अलंकार' है। चौध-रामहि केवल प्रेम पियारा। जानि लेउ जो जाननिहारा । राम सकल बनचर तब तोष। कहि मृदु बचन प्रेम परिपोषे ॥१॥ रामचन्द्रजी को केवल प्रेम प्यारा है, जो जाननेवाले हैं। वे जान लें तब रामचन्द्रजी ने सम्पूर्ण वनचरों को प्रेम से भरे कोमल पंचन कह कर सन्तुष्ट किया ॥१॥ इस चौपाई के पूर्वार्द्ध में लक्षणामूलक अमूढ़ व्यङ्ग है कि देखिये, कोल-भीलों से अधम दूसरा कौन होगा ? प्रेम के नाते उन्हें बालक की तरह स्नेह जनाते हुए अपना मानते हैं । इस उदाहरण से जाननेवाले समझ ले कि यहाँ मिचाई उँचाई कोई चीज़ नहीं है। "नीति पहि- चान यह गैति दरबार की" के अनुसार प्रेमी ही को अपना मानते हैं।