पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६३

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वृक्ष रामचरित मानस । ५०२ बिदा किये सिर नाइ सिधाये । प्रभु गुन कहत सुनत घर आये ॥ एहि बिधि सिय समेत दोउभाई।बसहि बिपिन सुर-मुनि-सुखदाई ॥२॥ कोल-भीलों को विदा किये, वे सिर नवा कर चले और प्रभु रामचन्द्रजी के गुण कहते सुनते घर आये । इस तरह सीताजी के सहित दोनों भाई देवता और मुनियों को सुख देने. वाले वन में निवास करते हैं ॥२॥ जब तँ आइ रहे रघुनायक । तब तैं भयउ धन मङ्गल दायक ॥ फूलहिँ फलहिँ बिटप बिधि नाना। मञ्जु-बलित-वर-बेलि-बिताना॥३॥ जब से रधुनाथजी आकर ठहरे, तय से वन मङ्गल-दायक हुभा है । नाना प्रकार के फूलते और फलते हैं, उन पर लिपटी हुई सुन्दर लताओं के अच्छे मंडा तने हुए हैं ।। ३ ॥ सुरतरं सरिस सुभाय सुहाये । मनहुँ विबुध बन परिहरि आये ॥ गुरुज मजु-तर मधुकर-नेनी । त्रिबिधि बयारि बहइ सुख देनी ॥४॥ वे कल्पवृक्ष के समान स्वाभाविक मुहावने हैं, ऐसा मालूम होता है मानों देवताओं के वाग़ को छोड़ कर आये है।। भँवरों की पंक्तियाँ बहुत ही मनोहर गुजार करती हैं और शीतल, मन्द, सुगन्धित तीनों प्रकार की सुख देनेवाली हवा बहती है ॥४॥ जड़ वृक्षों का स्वर्ग त्याग कर चित्रकूट के वन में आना प्रसिद्ध आधार है । जंगली पेड़ों में कल्पवृक्ष की कल्पना करना 'असिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलंकार है। दोश-नीलकंठ कलकंठ सुक, चातक चक्क चकोर । भाँति आँति बालहि विहग, खवन-सुखद चित-चोर ॥ १३७॥ मोर, कोयन, तोता, पपीहा, चकवा और चकोर तरह तरह के पक्षी कानों को सुख देने. वाली एवम् चित्त को चुरानेवाली बोली बोलते हैं ॥ १३७ ।। चौ०-करि केहरि कपि कोल कुरङ्गा । बिगत बैर बिचरहिं सब सङ्गा ॥ फिरत. अहेर राम छबि देखी । होहिं मुदित मृगबन्द बिसेखी ॥१॥ हाथी, सिंह, वन्द, सुश्रर और हरिन वैर त्याग कर सब साथ में विचरते हैं। शिकार में फिरते हुए रामचन्द्रजी की छवि को देख कर भूगों के झुंड विशेष प्रसन्न होते हैं ॥१॥ स्वाभाविक बैर त्याग कर धन के जीवों का साथ में विचरण वर्णन करने में राम- चन्द्रजी की महिमा व्यञ्जित करने की ध्वनि है। बिबुध-बिपिन जहँ लगि जग माहीं। देखि राम-बन सकल सिहाहीं । सुरसरि सरसइ दिनकर-कन्या । मेकल सुता गोदावरि धन्या ॥२॥ जहाँ तक देवताओं के और जगत में धन हैं, वे सब रामचन्द्रजी के वन को देख कर सराहते हैं । गङ्गा, सरस्वती, यमुना, नर्वदा और गोदावरी धन्य नदियाँ ॥ २॥