पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५०३ सब सर सिन्धु नदी नद नाना ! मन्दाकिनि कर करहिँ बखाना ॥ उदय-अस्त-गिरि अरु कैलासू । मन्दर मेरु सकल-सुर-बासू ॥३॥ सब तालाव, समुद्र, नदी और नाना नद मन्दाकिनी नदी को बड़ाई करते हैं । उद्याचल, अस्ताचल, कैलास; मन्दराचल, और सुमेरु आदि सम्पूर्ण देवताओं के रहने के पहाड़ ॥ ३ ॥ सैल हिमाचल आदिक जेते । चित्रकूट जस गोवहिँ तेते ॥ बिन्धि मुदित मन सुख न समाई । सम बिन बिपुल बड़ाई पाई ॥४॥ हिमालय आदिक जितने पर्वत हैं, वे सब चित्रकूट का यश गान करते हैं । बिना परिश्रम बहुत बड़ी बड़ाई पाने से विन्ध्याचल मन में इतना प्रसन्न है कि उसका सुख हृदय में समाता नहीं है॥४॥ दोष-चित्रकूट के बिहग मृग, बेलि बिटप तन-जाति । पुन्य-पुञ्ज सब धन्य अस, कहहिँ देव दिन राति ॥१३८॥ चित्रकूट के पक्षी, मृग, लता, वृक्ष और तृण की जातियों को दिन रात देवता यह कहत हैं कि ये सब पुण्य की राशि धन्य हैं ॥ १३ ॥ देवताओं के धन्यवाद और बड़ाई करने के सम्बन्ध से चित्रकूट के पक्षी; मृगादिको की अतिशय प्रशंसा करना सम्बन्धोतिशयोक्ति अलंकार है। चौ०-नयनवन्तरघुबरहि बिलेोकी । पाइ जन्म फल हाहिँ बिसाको । परसि चरन-रज अचर सुखारी । भये परम पद के अधिकारी ॥१॥ आँखवाले जीव रघुनाथजी को अवलोकन कर जन्म का फल पाकर शोक रहित होते हैं । अचर (पृथ्वी, पर्वत, तृणादि ) चरणों की धूलि के छू जाने से सुखी है। परम-पद (मोक्ष) के अधिकारी हुए हैं ॥१॥ से बन सैल सुभाय सुहावन । मङ्गल-मय अति पावन पावन ।। महिमा कहिय कवनि बिधि तासू । सुख सागर जहँ कीन्ह निवासू ॥२॥ वह वन-पर्वत सहज सुहावना, मंगल का रूप और अत्यन्त पवित्र से भी पवित्र है। 'उसकी महिमा किस प्रकार वर्णन कऊँ, जहाँ सुख के समुद्र (रामचन्द्रजी) ने निवास किया है ॥२॥ पय-पयोधि तजि अवध बिहाई। जहँ सिय-लखन-राम रहे आई। कहि न सकहिँ सुखमा जसिकानन । जौँ सत-सहस होहिं सहसानन ॥३॥ क्षीरसागर को त्याग और अयोध्यापुरी को छोड़ कर जहाँ सीताजी, लक्ष्मणजी पार रामचन्द्रजी आकर ठहरे हैं । उस वन की जैसी शेमा हो रही है उसको यदि लौ हज़ार शेषनाग हो जायँ तो भी नहीं कह सकते ॥३॥ .