पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६५

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रामचरित मानस । ५०४ सो मैं बरनि कहउँ बिधि केही । डाबर कमठ कि मन्दर लेहौं । सेवहि लखन करम मन-बानी । जाइ न सील सनेह बखानी ॥ वह मैं किस प्रकार वर्णन कर फहूँ, या गड़ही में रहनेवाला कछुनो मन्दराचल उठा सकता है ? (कदापि नहीं) । लक्ष्मणजी कर्म, मन, वाणी से सेवा करते हैं, उनका शिष्टाचार और स्नेह नहीं बखाना जा सकता neu . वह मैं किस तरह का यह उपमेय वाक्य है । क्या गड़ही का कछुआ मन्दर ले सकता है। यह उपमान वाक्य है। प्रथम वर्णन की अशकता कह कर फिर उपमान वाक्य में काकु से अशकता प्रकट करना, दोनों वाक्यों का एक ही धर्म 'प्रतिवस्त्पमा अलंकार' है। दो-छिन छिन लखि सिय-राम-पद, जानि आपु पर नेह । करत न सपनेहु लखन चित, बन्धु-मातु-पितु-गेह ॥१३॥ क्षण क्षण सीताजी और रामचन्द्रजी के चरणों को देख तथा अपने ऊपर उनका स्नेह समझ कर लक्ष्मणजी स्वप्न में भी भाई, माता, पिता और घर की ओर मन नहीं करते हैं ॥१३॥ चौ०-राम सङ्गसिय रहति सुखारी । पुर-परिजन-गृह-सुरति बिसारी॥ छिनछिन प्रिय बिधु-बदन निहारी। प्रमुदित मनहुँ चकोरकुमारी ॥१॥ रोमचन्द्रजी के साथ में सीताजी नगर, कुटुम्पोजन और घर की सुध भूल कर सुखी रहती हैं। क्षण क्षण प्यार के मुख रूपी चन्द्रमा को देख कर ऐसी प्रसन्न मालूम होती है मानों चकोर की कन्या आनन्दित हो ॥२॥ नाह नेह नित बढ़त बिलोकी । हरषित रहति दिवस जिमि कोकी । सिय मन राम-चरन अनुरागा । अवध-सहस-सम बन प्रिय लागा ॥२॥ स्वामी का स्नेह नित्य बढ़ता देख कर ऐसी प्रसत रहती हैं जैसे दिन में चकवी आनन्दित रहती है। सीताजी के मन में रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, इसलिए सहस्रो अयोध्या के समान उन्हें वन प्यारा लगता है ॥२॥ परन-कुटी प्रिय प्रियतम सङ्गा। प्रिय परिवार कुरङ्ग, बिहङ्गा ।। सासु-ससुर-सममुनि-तिय मुनिबर । असन अमिय सम कन्दमूल फर ॥३॥ प्रीतम के साथ में पत्तों की कुटी ही प्यारी लगती है और हरिण पक्षी- ही प्यारे कुटुम्बी हैं। मुनियों की स्त्रियाँ सासु और मुनिवर ससुर के समान हितकारी हैं, कन्द, मूल और फल ही अमृत के समान भोजन है ॥३॥ नाथ साथ साथरी. सुहाई। मयन-सयन-सय-सम सुखदाई ॥ लोकप होहि बिलोकत जासू । तेहि कि मेाहि सक विषय-बिलासू॥४॥ स्वामी के सङ्ग में सुहावनी गोनरी कामदेव की शय्या से सौगुनी सुखदायी हो रही है। जिनकी कृपादृष्टि से लोकपाल होते हैं, क्या उनको विषयानन्द मोहित कर सकता। (कदापि नहीं)