पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६६

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५०५ दा-सुमिरत रामहि तजहिँ जन, तन सम विषय-बिलासु । राम-प्रिया जग-जननि-सिय, कछु न आचरज तासु ॥ १४० ॥ रामचन्द्रजी को सुमिरते ही मनुष्य तिनके के बराबर विषय विलास को त्याग देते हैं। 'उन्ही रामचन्द्रजी की प्रियतमा जगत की माता सीताजी हैं, उनके लिये यह कुछ आश्चर्य नहीं है ॥ १४०॥ जिनका नाम स्मरण कर लोग विषयानन्द तज देते हैं, उनकी प्रियतमा के लिये विषय स्यागिणी होना कुछ अचरज नहाँ काव्यार्थापति अलंकार है। चौ०-सीय-लखन जेहि बिधि सुख लहहीं। सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं कहहिँ पुरातन कथा कहानी । सुनहि लखन सिय अति सुख मानी॥१॥ सीताजी और लक्ष्मणजी जिस तरह सुख पाते हैं वही रघुनाथजी करते हैं और वही कहते हैं। पुरानी कथा कहानियों को कहते हैं, उसे बड़ी प्रसन्नता से लक्ष्मणजी और सीताजी सुनती है ॥ १॥ जब जब राम अवध सुधि करहीं। तब तब बारि बिलाचन भरहीं । सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेह सील-सेवकाई ॥२॥ जब जब रामचन्द्रजी अयोध्यापुरी की सुधि करते हैं तब तब आँखों में जल भर लेते हैं। माता, पिता, कुटुम्बी और भाई भरत के स्नेह. शोल और सेवाओं की याद कर के ॥२॥ पिता-माता, कुटुम्बी और भाइयों के साथ पूर्वानुभूत विषयों का स्मरण होना 'स्मृति सवारी भाव' है। कृपासिन्धु प्रभु होहिँ दुखारी। धीरज धरहिँ कुसमउ, बिचारी । लखि सिय-लखन विकल होइ जाही। जिमि पुरुषहि अनुसर परिछाहीं॥३॥ दयासागर प्रभु रामचन्द्रजी दुःखी हो जाते हैं, परन्तु कुसमय विचार कर धीरज धरते हैं। स्वामी की दशा देख कर सीताजी और लक्ष्मणजी विकल हो जाते हैं, जैसे पुरुष के अनुः ' सार परछाही हिलती डोलती है ॥३॥ प्रिया-वन्धुगति लखि रघुनन्दन । धीर कृपाल भगत-उर चन्दन । लगे कहन कछु कथा पुनीता । सुनि सुख लहहिँ लखन अरु सीता ॥४॥ भक्तों के हृदय को शीतल करने में चन्दन रूप रघुनाथजी प्रिया-जानकी और भाई की दशा देख कर कुछ पवित्र कथा कहने लगते हैं, उसको सुन कर सीताजी और लक्ष्मणजी सुखी हो जाते हैं ॥ ४ ॥ सीताजी और लक्ष्मएजी के हृदयों में दैन्य और विषाद भाव उत्पन्न होकर बढ़ने नहीं पाया कि रामचन्द्रजी के द्वारा पवित्र इतिहास' सुन कर लय, को प्राप्त हुआ और हर्ष सञ्चारी प्रबल हो उठा 'भावशान्ति' है। ६४