पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६८

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द्वितीय सोपोन, अयोध्याकाण्ड ५०७ घोड़ों को व्याकुल देख कर निषाद का वेचैन होना मित्रपक्षीय 'प्रत्यनीक अलंकार है। सभा की प्रति में 'व्याकुल भयउ निषाद तब' पाठ है। चौ०-धरि धीरज तब कहइ निषादू । अब सुमन्त्र परिहरहु बिषादू ॥ पंडित परमारथ-ज्ञाता।धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता ॥१॥ तब धीरज धारण कर निषाद कहने लगा-हे सुमन्त्र ! अब विषाद को त्याग दीजिये। आप परमार्थ के जाननेवाले पंडित हो, विधाता को प्रतिकूल समझ कर धीरज धरिये ॥१॥ विविध कथो कहि कहि मृदु बानी । रथ बैठारेउ बरबस आनी ॥ सोक-सिथिल रथ सका न 'हाँकी । रघुपर-बिरह-पीर उर बाँकी ॥२॥ अनेक प्रकार की कथा कोमल वाणी से कह कह कर ज़ोरावरी से लाकर रथ पर बैठाया; परन्तु सुमन्त्र के हृदय में रघुनाथजी के विरह की टेढ़ी पीड़ा उत्पन्न है, वे शोक से शिथित (ढीले ) हो गये हैं रथ नहीं हाँक सकते ॥२॥ चरफराहिँ मग चलहिँ न घोरे । बन-मृग मनहुँ आनि रथ जोरे॥ अढकि परहिँ फिरि हेरहिं पीछे । राम-बियोग बिकल दुख तीछे ॥३॥ घोड़े रास्ता नहीं चलते तड़फड़ाते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों जगली जानवर लाकर रथ में जोते गये हो । ठोकर खेकर गिर पड़ते हैं और फिर कर पीछे देखते हैं, रामचन्द्रजी के घिरह से उत्पन्न तीक्ष्ण दुःख से वैचैन हैं ॥३॥ जो कह राम लखन बैदेही । हिकरि हिकरि हित हेरहिं तेही ॥ बाजि-बिरह-गतिकिमिकहि जाती।बिनुमनिफनिक बिकल जेहि भाँती॥४॥ जो कोई रामचन्द्र, लक्ष्मण और जानकी कहता है, हिहिना हिहिना कर प्रीति से उसकी और देखते हैं । घोड़ों के विरह की दशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे बेचैन हैं जिस तरह विना मणि के साँप विकल होता है॥४॥. दो०-भयउ निषाद बिषाद-बस, देखत सचिव तुरङ्ग । बोलि सुसेवक चारि तब, दिये सारथी सङ्ग ॥ १४३ ॥ मन्त्री और घोड़ों को देखते ही निषाद विषाद के वश हो गया। तब चार अच्छे सेवकों को बुला कर सुमन्त्र के साथ कर दिया ॥ २४३ ॥ चौगुह सारथिहि फिरेउ पहुँचोई । बिरह बिषाद बरनि नहिं जाई। चले अवध लेइ रथहि निषादा । होहिँ छनहिँ छन मगन विषादा ॥१॥ गुह सारथी को पहुंचा कर लोटा, उसके विरह का दुःख वर्णन नहीं किया जा सकता। रथ को लेकर निषाद अयोध्या को और चले, वे (सुमन्त्र की व्याकुलता देख कर ) क्षण क्षरण दुःख में मग्न हो रहे हैं ॥१॥