पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५६९

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५०८ रामचरित मानस । सोच सुमन्त्र बिकल दुख-दीना। धिग जीवन रघुवीर बिहीनी ॥ रहिहि न अन्तहु अधम सरीरू । जस न लहेउ बिछुरत रघुबीरू॥२॥ सुमन्त्र शोक से व्याकुल और दुःखासे कातर होकर कहते हैं कि विना रघुनाथजी के जोना धिकार है। यह अधम शरीर अन्त को न रहेगा, पर रामचन्द्रजी के बिछुड़ने पर यश नहीं लिया ॥२॥ भये अजस-अघ-भाजन प्राना । कवन हेतु नहिँ करत पयाना ।। अहह मन्द-मन अवसर चूका । अजहुँ न हृदय होत दुइ टूका ॥३॥ मेरे प्राण निन्दा और पाप के पात्र हुए हैं, फिर न जाने क्षिस कारण पयान नहाँ करते हैं ? अरे मूर्ख मन ! खेद है कि तू समय पर चूक गया, अब भी हृदय दो टुकड़े नहीं हो जाता? सुमन्त्र के पश्चात्ताप में लक्षणामूलक गूढ़ व्यङ्ग है कि--महाराज दशरथत्री ने इसका पूर्ण अधिकार मन्त्रि-मंडल को दे दिया था "जो पाँचहि मत लागह नीका। करहु हरषि हिय रामद टोका। मैंने यह जानते हुए कि केययी ने कुछ कुचाल की है, उसी के कहने पर बिना राजतिलक किये रामचन्द्रजी को बुला कर राजा के सामने खड़ा कर दिया । इस अनर्थ का मूल मैं ही हूँ । यदि राज्याभिषेक कर के केकयो के मन्दिर में लिवा ले जाता तो राजा की आज्ञा सब पर और राजा पर जिसी को श्राक्षा नहीं चलती, इस नीति के अनुसार रामचन्द्रजी को वनवास नहीं हो सकता था। मैं ने बड़ी भूल की, समय हाथ से खो दिया। मौजि हाथ सिर धुनि पछिताई। मनहुँ कृपन धन-रासि गँवाई ॥ बिरद बाँधि बर बीर कहाई । चलेउ समर जनु सुभट पराई ॥४॥ हाथ मल कर और सिर पीट कर पछताते हैं, ऐसा मालूम होता है मानों सूमड़े ने धन की राशि गवा दी हो। फिर ऐसा जान पड़ता है मानो अच्छा वीर कहा कर और योद्धा का थाना वाँध कर सुभट संग्राम से भाग चला हो Hen दो०-विप्र बिबेकी बेद-बिद, सम्मत-साधु सुजाति । जिमि धोखे मद पाने कर, सचिव सोच तेहि भाँति ॥ १४४ ॥ जैसे सुन्दर कुलीन, ज्ञानी, वेदज्ञ और साधु-मत का ब्राह्मण धोने से मदिरा पीकर ग्लानि-पूर्ण पश्चाताप करे, मन्त्री को ठीक उसी प्रकार का सोच है ॥१४॥ चौ०-जिमि कुलोन तिय साधु सयानी । पतिदेवता. करम-मन-बानी॥ रहइ करम-बस परिहरि नाहू । सचिवहृदय तिमि दारुनदाहू ॥१॥ जैसे कुलीग, साध्वी, चतुर और कर्म, मन, वचन से पतिव्रता स्त्री प्रारब्ध के अधीन पति को छोड़ कर जीवित रहे, मन्त्री के दय में उसी तरह भीषण दाह है ॥१॥