पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५७०

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। द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । लोचन सजल डोठि' अइ थोरी। सनइ न स्रवन विकल मति भारी॥ सूखहिं अधर लागि मुंह लाटी । जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी॥२॥ आँखों में आँसू भरे हएि थोड़ी हो गई है, कान से सुनते नहीं और व्याकुलता से बुद्धि भोली हो गई । ओंठ सूख गये हैं और मुख में लाटी (थूक फा प्रभाव) लग गई है, पर अवधि (१३ वर्ष) रूपी फिवाड़ी ने जीव को हृदय में रोक रक्खा है, वह निकलने नहीं पाता है ॥२॥ प्राण निकलने के सभी लक्षण आ गये तो भी शरीर में प्राण बने हैं। शरीर में जीव बने रहने का हेतुसूचक बात कह कर समर्थन करना 'काव्यलिङ्ग अलंकार' है। बिबरन भयउ न जाइ निहारी । मासि मनहुँ पिता महतारी ।। हानि गलानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पन्ध सोच जिमि पापी ॥३॥ शरीर की कान्ति ऐसी फीकी पड़ गई कि वह देखी नहीं जाती, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों पिता और माता को मार डाला हो। इस हानि से मन में बड़ी ग्लानि उत्पन हुई, उन्हें ऐसा सोच हुश्रा जैसे यमपुरी के रास्ते में पापी को सोच होता है ॥३॥ बचन न आव हृदय पछिताई । अवध काह मैं देखब जाई॥ राम रहित रथ देखिहि जोई। सकचिहि मोहि बिलोकत सोई॥४॥ मुख से पचन नहीं निकलता हदय से पछताते हैं, कि मैं अयोध्या में जा कर क्या देखूगा? जो कोई बिना रामचन्द्रजी के रथ को देख्नेगा, वही मुझे देखते ही सिकुड़ जायगा ॥४॥ मैं नगर-विवासियों के दुःख का कारण यनूँगा. यह व्यशार्थ वाच्यार्थ के बराबर होने से तुल्यप्रधान गुणीभूत व्या है। दो०-धाइ पूछिहहि माहि जब, बिकल नगर नर नारि ।। उत्तर देब मैं सबहि तब, हृदय बज बैठारि ॥१४॥ जब नगर के खो:पुरुष व्याकुलता से दौड़ कर पूछेगे, तब मैं छाती पर बन बैठा कर सम को उत्तर दंगा कि रामचन्द्रजी को पहुँचा कर मैं कुशल-पूर्वक लौट आया ॥१४॥ चौ०-पुछिहहिँ दीन दुखित संबं माता कहबकाहमैं तिन्हहिँ बिधाता ॥ पूछिहि जबहि लखन महँतारी । कहिहउँ कवन सँदेस सुखारी॥१॥ जब सब दुखित माताप दोनता से पूछेगी, तब या विधाता ! मैं उनसे क्या कहूँगा? जव लक्ष्मणजी की माता पूछे गीतम मैं कौन सासुख का सन्देशा कहूँगा ? ॥१॥ राम-जननि जब आइंहि धाई । सुमिरि बच्छ जिमि धेनु लवाई । मैं तेही। गे बन पूछत उतर देव राम-लखन-बैदेही ॥२॥ जैसे तुरन्त की न्याई गऊ बछड़े को याद कर दौड़ती है, वैसे जब रामचन्द्रजी को माता दौड़ कर आवेंगी और पूछेगी, तब मैं उनको उत्तर दूंगा कि रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीता चन को गये ॥२॥