पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५७१

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५१० रामचरित मानस । जोइ पूछिहि तेहि जतरु देवा । जाइ अवध अब यह सुख लेवा ॥ पूछिहि जबहि राउ दुख दोना । जिवन जासु रघुनाथ अधीना ॥३॥ 'जो काई पछेगा उसको यही उत्तर दूंगा, अयोध्या में जाकर अब यह सुख लेना है ? दुःख से कातर राजा जब पूछेगे, जिनका जोवन रघुनाथजी के अधीन है ॥३॥ दैहउँ उतर कवन मुँह लाई । आयउँ कुसल कुँअर पहुँचाई ॥ सुनत लखन-सिय-राम सँदेसू । लुन जिमि तनु परिहरिहि नरसू ॥४॥ उनको मैं कौन मुंह लाकर उधर दूंगा कि कुँघरों को कुशल से पहुँचा आया ? लक्ष्मण, सीता और रामचन्द्र का सन्देशा सुनते ही राजा तृण की तरह शरीर त्याग देंगे| दो-हृदय न बिदरेउ पङ्क जिमि, बिछुरत प्रीतम नीर । जानत हैाँ माहि दीन्ह विधि, यह जातना शरीर १४६॥ जैसे कीचड़ अपने प्रियतम जल के बिछुड़ते ही फट जाता है, तैसे मेरा हदय विदीर्ण नहीं हुआ तो मैं जानता हूँ कि विधाताने मुझे यह शरीर सासति भोगनेही के लिये दिया है ॥१४॥ अभीष्ट की हानि से चिन्ताजन्य मनोभङ्ग का होना 'दैन्य और विषाद सञ्चारीभाव' है। चौ०-एहि बिधि करत पन्ध पछितावा। तमसा-तोर तुरत रथ आवा॥ बिदा किये करि बिनय निषादा । फिरे पाँवपरि बिकल-विषादा॥१॥ इस तरह रास्ते में पश्चाताप करते हुए तुरन्त रथ तमसा के किनारे अाया। विनती कर के निषादों को बिदा किया, वे पाँव पड़ कर दुःख से वेचैन लौटे ॥१॥ पैठत नगर सचिव सकुचाई । जनु मारेसि गुरु-बाँभन-गाई ॥ बैठि बिटप तर दिवस गँवावा । साँश समय तब अवसर पावा ॥२॥ नगर में पैठते हुए मन्त्री जाते हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानो गुरु, ब्राह्मण और गैया की हत्या की हो । पेड़ के नीचे (नगर के बाहर )वैठ कर दिन विताया, सन्ध्या समय (जा अँधेरा हुआ) तब नगर प्रवेश का अवसर मिला ॥२॥ अवध प्रबेस कीन्ह अँधियारे । पैठ भवन रथ राखि दुआरे जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाये । भूपद्वार रथ देखन आये ॥३॥ अँधेरा हो जाने पर अयोध्या में प्रवेश किया, दरवाजे पर रथ छोड़ कर महल में गये। जिन जिन लोगों ने यह समाचार सुन पाया वे राजद्वार पर रथ देखने को आये ॥३॥ रथ पहिचानि बिकल लखि घोरे । गरहि गात जिमि आतप ओरे ॥ नगर नारि-नर ब्याकुल, कैसे। निघटत नीर मीन-गन जैसे ॥४॥ रथ पहचान कर और घोड़ों को व्याकुल देख कर कि उनके शरीर ऐसे गल रहे। जैसे-धाम में डाले गलते हैं। नगर के श्री-पुरुष कैले वेचैन हो गये जिस तरह पानी के घटते समय मछलियों का समुदाय विकल होता है | ।