पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५७३

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राजा ले ५१२ रामचरित मानस । लेत सोच भरि छिन छिन छाती। जनु जरि पड्ड परेउ सम्पाती। राम राम-सनेही । पुनि कह राम-लखन-चैदेही ॥ सोच से क्षण क्षण छाती भर लेते हैं, राजा ऐसे मालूम होते हैं, मानों पंख जल जाने से सम्पाती पड़ा हो। रामानुरागी-दशरथजी राम राम कहते हैं, फिर फिर रामचन्द्र, लक्ष्मण और जानकीजी का नाम लेते हैं ॥४॥ सम्पाती की कथा किष्किन्धाकाण्ड में २७ वे दोहे के आगे की चौपाई देखिये। दो०-देखि सचिव जयजीव कहि, कीन्हेउ दंड प्रनाम । सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति, कहु सुमन्त्र कहँ राम ॥ १४ ॥ राजा को देख कर मन्त्री ने जयजीय (एक प्रकार का अभिवादन जिसका अर्थ है जय हो और जियो ) कह कर दण्डवत प्रणाम किया। सुनते ही राजा अकुला कर उठे और बोले किसुमन्त्र ! रामचन्द्र कहाँ हैं। ॥ १४ ॥ चौ०--भूप सुमन्त्र लीन्ह उर लाई । बूड़त कछु अधार जनु पाई। सहित सनेह निकट बैठारी। पूछत राउ नयन भरि बारी ॥१॥ सुमन्त्र को छाती से लगो लिया, उन्हें ऐसा मालूम हुआ मानों बूड़ते हुए कुछ अाधार पा गये हो । स्नेह के साथ पास में बैठा कर राजा नेत्रों में आँसू भर कर पूछते हैं ॥१॥ राम कुसल कहु सखा-सनेही । कह रघुनाथ लखन वैदेही । आने फेरि कि बनहिँ सिधाये। सुनत सचिव लोचन जल छाये ॥२॥ हे प्यारे मित्र रामचन्द्र का कुशल समाचार कहो, रघुनाथजी, लक्ष्मण और जानकी कहाँ हैं ? लौटा लाये हो या कि वन को चले गये, यह सुनते ही मन्त्री की आँखों में आँसू भर लौटा लाये या कि वन को गये, किसी एक बात का निश्चय न होना 'सन्देहालंकार' है। सोक बिकल पुनि पूछ नरेसू । कहु लखन सन्देसू॥ राम-रूप-गुन-सील-सुभाऊ । सुमिनि सुमिरि उर सोचत राऊ ॥३॥ शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछते हैं कि सीता, रामचन्द्र और लक्ष्मण का सन्देशा कहो । रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को बारम्बार याद करके राजा हृदय में सोचते हैं ॥३॥ राज सुनाइ दीन्ह बन-बासू । सुनि मन 'यउ न हरष हरासू ॥ सो सुत बिछुरत गये न प्राना । को पापी बड़ माहि समानो ॥४॥ मैं ने राज्य सुना कर बनयास दिया, वह सुन कर जिनके मन में हर्ष या विषाद नहीं हुआ। ऐसे पुत्र के बिछुड़ते ही प्राण नहीं गये तो मेरे समान बड़ा पापी दुसरा कौन होगा ? (कोई नहीं)॥४॥ श्रआया ॥२॥ सिय शम 1