पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५७४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५१३ दो०-सखा राम-सिय-लखन जह, तहाँ मोहि पहुँचाउ । नाहि त चाहत चलन अब, प्रान कहउँ सतिभाउ ॥१४॥ हे सखा ! रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण जहाँ हैं वहाँ मुझे पहुँचा दो। नहीं तो सब कहता हूँ, अब मेरे प्राण ही चलना चाहते हैं ॥ १४ ॥ चौध-पुनि पुनि पूछत मन्त्रिहि राऊ । प्रियतम सुअन सँदेस सुनाऊ ॥ करहि सखा साइबेगि उपाऊ । राम-लखन-सिय नयन देखाऊ॥१॥ बार बार राजो मन्त्री से पूछते हैं कि प्यारे पुत्रों का सन्देशा सुनाओ। हे मित्र ! शीघ्र वही उपाय करो कि जिससे रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीता को आँख से दिखा दो ॥१॥ सचिव धीर धरि कह मृदु बानी । महाराज तुम्ह पंडित ज्ञानी ॥ बीर सुधीर-धुरन्धर देवा । साधु-समाज सदा तुम्ह सेवा ॥२॥ मन्त्री धीरज धर कर कोमल वाणी से बोले-महाराज ! आप तो पंडित और ज्ञानो हैं। हे देव! अच्छे धैर्य धारियों में प्रधान और शूरवीर हैं, आपने सदा सज्जनों के समाज की सेवा की है ॥२॥ जनम मरन सब दुख-सुख भोगा । हानि लाम प्रिय-मिलन बियोगा ॥ काल-करम बस होहिं गोसाँई । बरबस राति दिवस की नाँई ॥३॥ जन्म, मृत्यु, दुःख और सुख के भोग, हानि, लाभ, प्यार का मिलना और बिछुड़ना, हे स्वामिन् ! यह सब काल तथा फर्म के अधीन दिन-राति की भाँति जोरावरी से होते हैं ॥३॥ सुख हरहिं जड़ दुख बिलखाहीं । दोउ सम धीर धरहिँ मन माहीं । धीरज धरहु बिबेक बिचारी । छाड़िय सोच सकल-हितकारी ॥४॥ अज्ञानी सुख से प्रसन्न और दुःख से दुःखी होते हैं, धीरवान् ! (ज्ञानी) दोनों को मन में बराबर समझते हैं । इसलिये हे सब के कल्याण करनेवाले महाराज ! सोच छोड़ दीजिये, शान से विचार कर धीरज धरिये ॥४॥ दो०-प्रथम बास तमसा भयउ, दूसर सुरसरि तीर । न्हाइ रहे जलपान करि, सिय समेत दोउ बीर ॥१५०॥ पहला निवास तमसा के किनारे और दूसरा गङ्गाजी के तीर पर हुधा (पहिले दिन तमसा के किनारे) सीताजी के सहित दोनों वीर स्नान कर केवल जल पीकर वहाँ रात में चौ०- केवट कीन्ह बहुत सेवकाई । सो जामिनि सिगरौर गवाई ॥ होत प्रात बटछीर मँगावा। जटा-मुकुट निज सीस बनावा ॥१॥ (दूसरे दिन गजाजी के किनारे) निषाद ने बड़ी सेवा की, वह रात्रि गबेरपुर में बिताई। सबेरा होते ही बड़ का दूध मगवाया और अपने सिर पर जया का मुकुट बनाया ॥१॥ ६५