५१४ रामचरित-मानस । रामसखा तब नाव मँगाई। प्रिया चढ़ाई चढ़े रघुराई॥ लखन बान-धनु धरे बनाई । आपु चढ़े प्रभु आयसु पाई ॥२॥ तब रामचन्द्रजी के मित्र (गुह) ने नाव मैंगवाई, सीताजी को चढ़ा कर रघुनाथजी चढ़े। धनुष-बाण सज कर लिये हुए प्रभु रामचन्द्रजी की आशा पा कर लक्ष्मणजी भी सवार हो गये ॥२॥ बिकल बिलोकि मोहि रघुबीरा। बोले मधुर बचन धरि धोरा । तात प्रनाम तात सन कहेहू । बार बार पद-पङ्कज गहेहू ॥३॥ मुझे व्याकुल देख कर रघुनाथजी धीरज धारण कर के मधुर वचन बोले । हे तात ! पिताजी से मेरा प्रणाम कहना और बार बार उनके चरण कमलों को पकड़ना ॥ ३ ॥ 'तात' शब्द में पुनरुक्ति का आभास है किन्तु पुनरुक्ति नहीं है। एक सुमन्त्र के लिये सम्बोधन और दूसरा पिता को धिक होने से 'पुनरुक्तिवदामास अलंकार' है। करवि पायपरि बिनय बहोरी । तात करिय जनि चिन्ता मारी। बन-भग मङ्गल-कुसल हमारे । कृपा-अनुग्रह पुन्य तुम्हारे । फिर पाँव पड़ कर विनती करना कि-हे पिताजी श्राप मेरी चिन्ता न कीजिये। आप के कृपा-मनुग्रह और पुण्य सेवन के मार्ग में हमारे लिये कुशल मङ्गल है ॥४॥ कुशल-मनल और कृपा-अनुग्रह शब्द एकार्थवाची होने पर भी सोध पाये हैं। इसमें आदर की विप्ला और पुनरुक्तिवदामास का सन्देइसकर है। हरिगीतिका-छन्द। तुम्हरे अनुग्रह तात कानन, जात सब सुख पाइहाँ। प्रतिपालि आयसु कुसल देखन, पाय पुनि फिरि आइहाँ । जननी सकल परितोषि परि परि, पाँय करि बिनती धनी । तुलसी करेहु सोइ जतन जेहि कुसली रहहिँ कोसल-धनी ॥६॥ हे पिताजी ! आप की कृपा से बन जाते हुए मैं सब तरह से सुज पाऊँगा। माहा पालन करके कुशल से लौट आकर फिर आप के चरण का दर्शन करूंगा। सम्पूर्ण माताओं के पाँव पड़ पड़ कर धनी बिनती कर के उन्हें सन्तुष्ट करना । तुलसीदासजा कहते हैं कि-वही उपाय करना जिलले अयोध्यानरेश कुशल से रहे ॥६॥ 'पुनि फिरि शब्दों में पुनरुक्ति का आभास है, किन्तु अर्थ भिन्न होने से 'पुनशक्तिवदा- भास अलंकार' है। सो०-गुरु सन कहब सँदेस, बार गहि । करब साइ उपदेस, जेहि न सोच मोहि अवधपति ॥१५१५ बार बार चर्ण कमत्तों को पकड़ कर गुरुजी से मेरा सन्देशा कहना कि वे वही उपदेश करेंगे, जिसमें अयोध्यानाथ मेरा सोच न करें ॥ १५ ॥ बार पद-पदुम