पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८०

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५१६ हो रघुनन्दन प्रान-पिरीते । तुम्ह बिनु जियत बहुत दिन बीते ॥ हा जानकी लखन हा रघुबर । हा पितु-हित-चित-चातक-जलधर ॥४॥ हाय प्राणप्यारे रघुनन्दन ! तुम्हारे बिना मुझे बहुत दिन जीते बीत गये। हा जानकी, हा लक्षमण, हाय ! पिता के वित्त रूपी चातक के लिये मेघरूपी रघुवर ॥ ४॥ दो-राम राम कहि राम कहि, राम रोम कहि राम । तनु परिहरि रघुबर बिरह, राउ गयउ सुरधाम ॥१५॥ राम राम कह कर; राम कह फर; राम राम राम कह कर रघुनाथजी के विरह में राजा शरीर त्याग कर देवलोक को पधारे ।। १५५॥ वार धार आदर-पूर्वक रामचन्द्रजी का नाम उच्चारण करना 'विप्सा अलकार' है। वन्दन पाठक ने अपनी शकावली में छे बार 'राम' कहने पर बहुत सी बातें कही हैं। शङ्का इस बात की है कि भरतउ जासु नाम मुख आवा। अधमौ मुक्त होइ श्रुति गावा फिर भरती वेर राजा ने धार वार राम राम उच्चारण किया तो भी देवलोक में जाना कहा, मोक्ष नहीं वर्णन किया, यह क्यों ? उत्तर-राजा को रामचन्द्रजी के दर्शन की हृदय में प्रबल इच्छा थी, किन्तु कारण वश शरीर त्यागना पड़ा, इसी से मोक्ष नहीं वर्णन किया। उनकी यह कामना युद्ध के बाद लङ्काकाण्ड में पूर्ण होना कहा है। फिर सगुन उपासक मोक्ष न लेही" के अनुसार राजा ने स्वयम् मोक्ष स्वीकार नहीं किया। चौ०-जियन मरन फल दसरथ पावा । अंड अनेक अमल जस छावा ॥ जियत राम-बिधु-बदन निहारा। राम-बिरह करि मरन सँवारा ॥१॥ जीने और मरने का फल दशरथजी ने पाया, अनेक ब्रह्माण्डों में उनका निर्मल यश छा गया। जीते जी रामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा को देखा और रामचन्द्रजी का वियोग कर के मरण सुधार लिया ॥१॥ मृत्यु रूपी दोष को रामचन्द्रजी के विरह में होने से उसको गुण रूप वर्णन करना 'लेश अलंकार है। सोक बिकल सब रोवहिँ रानी । रूप सील बल तेज बखानी ॥ करहिँ बिलाप अनेक प्रकारा । परहिँ भूमितल बोरहिँ बारा ॥२॥ शोक से व्याकुल होकर सब रानियाँ रोती हैं, उनके रूप, शील, बल और तेज को.बखा. नती हैं। अनेक प्रकार रुदन करती हैं और बार बार धरती पर गिरती हैं ॥२॥ बिलपाहिँ बिकल दास अरु दासी । घर घर रुदन करहिं पुरबासी ॥ अथयउ आजु भानुकुल-भानू । धरम-अवधि गुन-रूप-निधानू ॥३॥ दास और दासियाँ विकल होकर विलपते हैं और घर घर नगर-निवासी रुदन करते हैं। कहते हैं कि-धर्म के अवधि, गुण और रूप के भण्डार, पुर्य कुल के सूर्य आज अस्त गये ॥३॥ 4