पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८१

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५२० रामचरित-मानस । राजा दशरथजी मालम्बन विभाव हैं। उन के मरण से उत्पन्न हुया शोक स्थायीभाव है। उनके रूप, शील, पराक्रम, प्रताप का स्मरण उद्दीपन विभाव है । रोना धरती पर गिरना अनुभाव है । विषाद, चिन्ता, मोह, चपलता, आवेग, अपस्मार, उन्माद, बासा आदि सञ्चारी भावों से बढ़ कर शोक पूर्णावस्था को पहुँच कर 'फरुण-रस' हुआ है। गारी कैकइहि देही । नैन बिहीन कीन्ह जग जेहीं । एहि बिधि बिलपत रैनि बिहानी । आये सकल महामुनि ज्ञानी ॥४॥ सब स्त्रियाँ केकयी को गाली देती हैं, जिसने संसार को बिना नेत्र का कर दिया। इस प्रकार विलाप करते रात पीत गई, प्रातःकाल सम्पूर्ण बड़े बड़े झानी, मुनि श्राये ॥४॥ प्रस्तुत वृत्तान्त तो यह है कि इसने राजा को मार डाला जिससे संसार को अनाथ कर दिया। इस बात को सीधे न कह कर उसका प्रतिविम्ब मात्र कहना 'ललित अलंकार' है। दो-तब बसिष्ठ मुनि समय सम, कहि अनेक इतिहास । सोक निवारेउ, सबाह कर, निज विज्ञान प्रकास ॥१५६॥ तब वशिष्ठ मुनि ने समयानुसार बहुत तरह के इतिहास कह कर अपने विज्ञान के प्रकाश से सब का शोक दूर किया ॥ १५६ ॥ शोक भाव वशिष्ठजी के ज्ञान प्रकाश से दव कर धृति भाव का प्रवल होना भावसवलता है। यहाँ अनेक इतिहास कहने में 40 ज्वाला प्रसाद मिश्र ने दो ढाई पन्ने रगडाले हैं। चौ०-तेल नाव भरि नृप-तनु राखा । दूत बोलाइ बहुरि अस भाखा ॥ धावड बेगि भरत पहि जाहू । नृप सुधि कतहुँ कहहु जनि तेल से नाव भरवा कर उस में राजा का शरीर (लाश) रखवा दिया, फिर दूतों को दुला कर ऐसा कहा-शीघ्र दौड़ कर भरत के पास जाओ और राजा की खबर कहीं किसी से एतनेइ कहेउ भरत सन जाई । गुरु- बोलाइ पठयउ दोउ भाई। सुनि मुनि आयसु धावन धाये । चले बेगि बर-बाजि लजाये ॥२॥ जाकर भरत से इतना ही कहना कि दोनों भाइयों को गुरु ने वुला भेजा है। मुनि की आशा सुन चे दूत अच्छे घोड़े को लज्जित कर दौड़ते हुए तुरन्त चले ॥२॥ आशा सुनते ही दूतों को तुरन्त दौड़ पड़ना 'चपलातिशयोक्ति अलंकार' है। चाल में श्रेष्ठ घोड़े को लज्जित करना 'पञ्चम प्रतीप है। अनरथ अवध अरम्भेउ जब तैं। कुसगुन होहि अरत कहँ तब तैं । देखहिँ राति भयानक सपना । जागि करहिँ कटु कोटि कलपना ॥३॥ जब से अयोध्या में अनर्थ होना प्रारम्भ हुआ तब से भरतजों को कुलगुन होते हैं। रात में भयानक स्वप्न देखते हैं और जाग कर करोड़ों तरह की अनिष्ट कल्पमाय काहू ॥१॥ मत कहना ॥१॥ करते हैं ॥३॥