पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८२

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५२१ , द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड ।' बिप्र जैवाइ देहि दिन दाना । सिव अभिषेक करहिं बिधि नाना । माँगहि हृदय महेस मनाई। कुसल मातु पितु परिजन भाई ॥॥ प्रतिदिन ब्राह्मण भोजन कराकर दान देते हैं और नाना प्रकार से शिवजी का पूजन (रुद्राभिषेक ) करते हैं। शंकरजी को मन में मना कर माता, पिता, कुटुम्बो और भाइयों का कल्याण चाहते हैं ॥४॥ दो०-एहि बिधि सोचत भरत मन, धावन पहुँचे आइ। गुरु-अनुसासन सवन सुनि, चले गनेस मनाइ ॥१५॥ इस तरह भरतजी मन में सोच ही रहे थे कि दूत आ पहुँचे । गुरुजी की आज्ञा कान से सुन कर गणेशजी को मना कर चले ॥ १५ ॥ चौ०-चले सुमीर-बेग हय हाँके । नाँघत सरित सैल बन बाँके । हृदय सोच बड़ कछु न सोहाई । अस जानहिं जिय जाउँ उड़ाई ॥१॥ पवन के वेग के समान घोड़ों को हाँक कर मदी, पर्वत तथा विकट जालों को लॉधते हुए चले । हदय में बड़ा सोच है कुछ सोहाता नहीं, मन में ऐसा विचारते हैं कि बड़ा कर पहुँच जाऊँ ॥१॥ शीघ्र अयोध्या में पहुंचने की अक्षमता का उद्वेग 'उत्सुकता सञ्चारीभाव' है। एक निमेष बरष सम जाई । एहि बिधि भरत नगर नियराई । असगुन होहिँ नगर पैठारा । रहि कुभाँति कुखेत करारा ॥२॥ एक पल एक वर्ष के समान बीतता है, इस तरह भरतजी नगर के समीप में आ गये अयोध्या में प्रवेश करते समय असगुन होते हैं, कौवे कुजगह में बैठ कर बुरी तरह रटते हैं ॥२॥ खर सियार बोलहिँ प्रतिकूला । सुनि सुनि होइ भरत मन सूला ॥ श्रीहत सर सरिता बन बागा। नगर बिसेषं भयावन लागा ॥ ३ ॥ गदहा और सियार विपरीत बोलते हैं, 'वह सुन सुन कर भरतजी के मन में टुःख हो रहा है। तालार, नदी, वन और बगीचा दुति-हीन हो गये हैं और नगर बड़ा ही भयावना लगतो है ॥ खग मृग हय गय जाहिं न जाये । राम-बियोग-कुरोग बिगाये। नगर नारि नर निपट दुखारी । मनहुँ सबन्हि सब सम्पति हारी॥४॥ पक्षी, मृग, घोड़े और हाथी देने नहीं जाते हैं, वे रामचन्द्रजी के वियोग रूपो.बुरे रोग से सताये हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुष अत्यन्त तुली हैं, वे ऐसे मालूम होते हैं मानों सक ने सारी सम्पत्ति हार दी हो ॥४॥ 1