पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८३

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५२२ रामचरित मानस । दो-पुरजन मिलहिँ न कहहिँ कछु, गँवहिँ जोहारहि जाहिँ । भरत कुसल पूछि न सकहि, भय बिषाद मन माहि ॥१५८॥ नगर के लोग मिलते हैं पर वे कुछ कहते नहीं, गर्व से प्रणाम कर चले आते हैं। यह देख कर भरतजी के मन में भय और विषाद बढ़ता जाता है, वे किसी से कुशल-समाचार नहीं पूछ सकते हैं ॥१५॥ हालि के सोच ले भरतजी के मन में शङ्का सञ्चारी भाव है, इससे पूछ नहीं सकते हैं। चौ०-हाट बाट नहिं जाइ निहारी । जनु पुर दहदिसि लागि दवारी। आवत सुत सुनि कैयनन्दिनि । हरषीरबिकुल-जलरूह चन्दिनि ॥१॥ बाजार और रास्ता देखा नहीं जाता है, ऐसा मालूम होता है मानों नगर के दसों दिशाओं में आग लगी हो । सूर्यकुल रूपी कमल को बाँदनी के कयी पुत्र को प्राते सुन कर प्रसन्न हुई ॥२॥ सजि आरती मुदित उठि धाई । द्वारहि मॅटि भवन लेइ आई ॥ भरत दुखित परिवार निहारा । मानहुँ तुहिन बन ज-बन मारा ॥२॥ आरती सज कर प्रसन्नता से उठ दौड़ी और धार ही पर मिल कर घर में लिया लाई । मरतजी ने कुटुम्बियों को दुखी देखा वे ऐसे मालूम होते हैं मानों कमल के वन को पाले ने मारा हो ॥२॥ कैकेई हरषित एहि भाँती। मनहुँ मुदित दव लाइ किराती। ॥ सुत्तहि ससोच देखि मन मारे। पूछति नैहर कुसल हमारे ॥ ३ ॥ केकयी इस तरह हर्षित है मानों वन में आग लगा कर भीलनी प्रसन्न हो । सोच से मन मारे पुत्र को उदास देख कर पूछती है कि हमारे नैहर में कुशल क्षेम है ? ॥४॥ सकल कुसल कहि भरत सुनाई। पूछी निज-कुल कुसल भलाई ॥ कहु कहँ तात कहाँ सब माता । कहुँ सिय-राम-लखन प्रिय भाता ॥४॥ भरतजी ने सब कुशल कह सुनायी फिर अपने कुल की कुशल-भलाई पूछी । कहे. पिताजी कहाँ है और सब माता कहाँ हैं, सीताजी और प्यारे भाई रामचन्दनी लक्ष्मणजी कहाँ हैं १ ३४ दो-सुलि सुत-बचन सनेहमय, कपट नीर भरि नयन । भरत खवन-मन-सूल-सम, पापिनि बाली बयन ॥१५॥ पुत्र के स्नेह भरे वचनों को सुन कर कपट से आँखों में आँसू भर कर भरतजी के कान और मन को शूल के समान पापिन-केकयी वचन वाली ॥१५॥ चौ-तात बात मैं सकल सँवारी । भइ मन्धरा सहाय बिचारी ॥ कछुक काज बिधि बीचबिगारेउ। भूपति सुरपति-पुर पगु धारेउ॥१॥ हे पुत्र ! मैं ने सारी बातें सुधार ली है, बेचारी मन्धरी सहाय दुई। बीच में विधाता कार्य बिगाड़ दिया, कि राजा अमरलोक (स्वर्ग) को चले गये ॥ १॥