पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८५

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५२४ रामचरित मानस । चौ०-बिकलबिलोकि सुत्तहिसमुझावति। मनहुँ जरे पर लान लगावति। तात राउ नहिँ सोचइ-जोगू । बिढाइ सुकृसजसकोन्हे उभागू॥१५ पुत्र को ज्याकुल देखकर समझाती हैं, ऐसा मालूम होता है मानों जले पर नमक लगाती हो। हे पुत्र ! राजा सोचने योग्य नहीं हैं, उन्होंने पुण्य और यश उपार्जन करके उसका भोग किया ॥१॥ जीवत सकल जनम-फल पाये । अन्त अमरपति सदन सिधाये॥ अस अनुमानि सोच परिहरहू । सहित समाज राज पुर करहू ॥२॥ जीते जी जन्म के सम्पूर्ण फल पाये और अन्त में इन्द्रलोक को गये। ऐसा विचार कर सोच त्याग दो, समाज के सहित नगर में राज्य करो ॥२॥ सुनि सुठि सहमेउ राजकुमारू । पाके छत जनु लाग अँगारू । धीरज धरि भरि लेहिँ उसासा । पापिनि सबहि भाँति कुल नासा ॥३॥ माता की बात सुन कर राजकुमार अत्यन्त भय-विहल हो गये, ऐसा मालूम हुआ मानों पके फोड़े में उसने बाग लगा दी हो। धीरज धर कर लम्बी साँस लेते हैं भौर मन में विवा. रते हैं कि इस पापिनी ने सब तरह कुल का नाश हो कर डाला ॥३॥ पफेव्रण में आग लगाने से दुस्सह पीड़ा होती है ।यह 'उक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार' है। जौँ पै कुरुचि रही अति तोही । जनमत काहे न मारे माही । पेड़ काटि तैं पालउ सींचा। मीन जियन निति बारि उलीचा तब भरतजी प्रकट बोले-यदि तुझे इतनी बड़ी कुरुचि ( दुष्ट इच्छा ) यो तो जन्मते ही मुझे क्यों नहीं मार डाला १ ते ने पेड़ काट कर पत्तों को सींचा है और मछला के जीने के निमित्त पानी (सरोवर से बाहर ) फेकती है ? ॥४॥ भरतजी को कहना तो यह है कि तु राजा को मृत्यु-मुख मैं और रामचन्द्रजी, सीताजी, लक्ष्मण को पन भेज कर मुझे राज्य करने को कहती है ? उसे सोधे म कह कर उसका प्रतिविम्ब मात्र कहना 'ललित अलंकार है। दो०-हंस-बंस दसरथ-जनक, राम-लखन जननी तू जननी भई, विधि सन कछु न बसाइ ॥१६॥ मैं सूर्यकुल में उत्पन्न हुना, दशरथ पिता और रामचन्द्र-लक्ष्मण के समान भाई हैं। परन्तु हे माता ! तू मेरी माता हुई। विधाता से कुछ वश नहीं ॥ १६ ॥ कुल, पिता और वन्धुओं की महान् श्रेष्ठता और माता की अतिशय नीचता व्यजित करना व्यङ्ग है । व्यङ्गार्थ से अपने और माता में अनमेल का भाव प्रकट करना 'प्रथम विषम अलंकार' है। से भाइ।