पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड। मातु तात कह देहि देखाई। कह सिय-राम-लखन दोउ भाई ॥ कइकइ कत जनमी जग माँगा । जौं जनमित्तमइकाहेनबाँझा ॥२॥ हे माता पिताजी कहाँ हैं? मुझे दिखा दो सीताजी, रामचन्द्रजी और लदमणजी दोनों भाई कहाँ हैं ? केकयी संसार में काहे को जन्मी ? यदि जन्मी तो बाँझ क्यों न हुई ? ॥२॥ कुल-कलङ्क जेहि जनमेउ माही । अपजस-भाजन प्रिय-जन-द्रोही। को तिभुवन मोहि सरिस अभागी । गति असि तारिमातुजेहि लागी ॥३॥ जिलने मुझे फुल का कलङ्की, अपयश का पात्र और प्रियजनों का द्रोही जनमाया। हे माता! तीनों लोकों में मेरे समान श्रभागा कौन होगा ? जिसके लिये तेरी यह दशा हुई है ॥३॥ पितु सुरपुर बन रघुबर-केतू । मैं केवल सब अनरथ हेतू ॥ धिग मोहि भयउँ बेनु-बन-आगी । दुसह दाह दुख दूषन आगी ॥४॥ पिताजी देवलोक और रघुकुल के श्रेष्ठ पताका वन को गये, सब अनर्थों का कारण केवल मैं ही हूँ। मुझे धिक्कार है कि बाँस के वन की आग हुआ और दुःसह दाह, दुःख, दोषों को भागी हूँ ॥५॥ दो०-मातु भरत के वचन मृदु, सुनि पुनि उठी सँभारि । लिये उठाइ लगाइ उर, लोचन मोचत्ति बारि ॥ १६४ ॥ भरतजी के कोमल वचनों को सुन कर माताजी फिर सँभल कर उठी । आँखों से आँसू बहाते हुए पुत्र को उठा कर हश्य से लगा लिया ॥१६॥ चौ०-सरल सुभाय माय हिय लाये । अतिहित मनहुँ राम फिरि आये। भैंटेउ बहुरि लखन-लघु-भाई । सोक-सनेह न हृदय समाई ॥१॥ माताजी ने अत्यन्त प्रीति के साथ सीधे स्वभाव से हृदय में लगा लिया, वे ऐसी प्रसन्न मालूम होती हैं मानों रामचन्द्रजी लौट आये हो। फिर लक्ष्मणजी के छोटे भाई (शत्रुहनजी) से मिली, शोक और स्नेह हदय में श्रमाता नहीं है ॥१॥ शोक और स्नेह दोनों भावों का साथ ही हृदय में उमड़ना 'प्रथम समुच्चय अलंकार' है। देखि सुभाउ कहत सब कोई । राम-मातु अस काहे न होई ॥ माता भरत गोद बैठारे । आँसु पाँछि मृदु बचन उचारो॥२॥ कौशल्याजी का स्वभाव देख कर सब कोई कहते हैं कि रामचन्द्रजी की माता ऐसी काहे न हो। माताजी ने भरत को गोद में बैठा लिया और आँसू पोंछ कर कोमल बचन बोली ॥२॥ रामचन्द्रजी की माता ऐसी सरल क्यों न हो, कारण के समान कार्य का वर्णन 'द्वितीय सम अलंकार' है। +