पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९

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रामचरित-मानस। @ मति कीरति गति भूति भलाई । जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई ।। सो जानब सतसङ्ग प्रभाऊ । लोकहु बेद न आन उपाऊ ॥ ३ ॥ बुद्धि, कीर्ति, मोक्ष, ऐश्वर्य और कल्याण आदि जब कभी जिस किसी उपाय से जिसने जहाँ पाया है वह सत्संग ही की महिमा समझनी चाहिये। इनके मिलने का लोक और वेद में दूसरा उपाय ही नहीं है ॥ ३॥ बिनु सतसङ्ग बिबेक न होई । राम-कृपा-बिनु सुलम न साई ॥ सतसङ्गति मुद-मङ्गल मूला । साइ फल सिधि सब साधन फूला ॥४॥ विना सत्संग के ज्ञान नहीं होता और बिना रामचन्द्रजी की कृपा वह (सत्संग) महज में प्राप्त नहीं होता । अानन्द-माल रूपी वृक्ष को जड़ सत्सग ही है, सब साधन फूल हैं वही एक सिद्ध फल है ॥४॥ विना सत्सङ्ग के ज्ञान नहीं होता और बिना राम-कृपा के सत्सन नहीं मिलता द्वितीय कारणमाला अलंकार' है। सठ सुधरहिँ सतसङ्गति पाई । पारस परस कुधातु सुहाई ॥ विधि बस सुजन कुसङ्गति परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं ॥५॥ दुष्ट भी सत्संग पा कर सुधर जाते हैं, जैसे पारस पत्थर के बु जाने से लोहा सन्दर धातु (सुवर्ण) बन जाता है । दैवयोग से सज्जन कुसङ्गमें पड़ते हैं, तब वे सर्प के मणि के समान अपने ही गुणों का अनुकरण करते हैं ॥ ५ ॥ सत्सङ्ग पाकर शठों का सुधरना उपमेय वाक्य है और पारस के स्पर्श से कुधातु का सुधातु होना उपमान वाक्य है । विना वाचक पद के दोनों वाक्यों में विश्व प्रतियिम भाव झलकना 'टष्टान्त अलंकार' है । उत्तरार्द्ध में कुसङ्गको दोप न ग्रहण कर अपने ही गुणों को अनुकरण करना 'अतद्गुण अलंकार' है । पारस पत्थर प्रसिद्ध है, कहते हैं उसमें लोहा छु जाने से सोना बन जाता है। बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु-महिमा सकुचानी ॥ सो मो सन कहि जात न कैसे । साक-बनिक मनि-गन-गुन जैसे ॥६॥ ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कवि, विद्वान और सरस्वती साधुओं की महिमा कहने में लजा जाते हैं । वह मुझसे कैसे नहीं कही जाती, जैसे सागं का चैचनेवाला (कुंजड़ा-खटिक ) मणियों का गुण नहीं कह सकता ॥६॥ दो०-बन्दउँ सन्त समान चित, हित अनहित नहिं कोउ । अञ्जलि-गत सुभ-सुमन जिमि, सम सुगन्ध कर दोउ ॥ मैं सन्तों को प्रणाम करता हूँ, जिनका चित्त समान है और जिनका कोई शत्रु या मित्र नहीं है । जैसे दोनों हथेलियों में प्राप्त सुन्दर फूल बराबर ही सुगन्ध देते हैं । .