पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

t द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५२९ दो-कौसल्या के बचन सुनि, भरत सहित रनिवास । ब्याकुल बिलपत राजगृह, मानहुँ सेक-निवास ॥१६॥ कौसल्याजी के बचनों को सुन कर भरतजी केसहित रनिवास व्याकुल होकर विलाप करने लगा। ऐसा मालूम होता है मानों राजमहल में शोक ने डेरा किया हो ॥१६॥ राजा की मृत्यु और रामचन्द्रजी के वनवास से भयानक शोक होना सिद्ध आधार है। परन्तु शोक कोई सदेह जीव नहीं जो राजमहल में निवास किये 'हो। इस अहेतु को हेतु उहराना 'सिद्धविषया हेतूत्प्रेक्षा अलङ्कार' है। चौ०-बिलपहिं भरत बिकल दोउमाई। कौसल्या लिये हृदय लगाई। आँति अनेक भरत समुझाये । कहि बिबेक-मय बचन सुहाये ॥१॥ भरत-शत्रुहन दोनों भाई विकल होकर विलाप करते हैं, कौशल्याजी ने उन्हें हृदय से लगा लिया। अनेक प्रकार से विचार-पूर्ण सुहावने वचन कह कर भरतजी को समझाया ॥ १॥ भरतहु मातु सकल समुझाई । कहि पुरान-सुति कथा सुहाई ॥ छलबिहोन सुचि सरल सुबानी । बोले भरत जारि जुग पानी ॥२॥ भरतजी ने सम्पूर्ण माताओं को पुराण और वेदों के सुहावने इतिहास कह कर समझाये। तब दोनों हाथ जोड़ कर भरतजी छल-रहित, पवित्र, सीधी और सुन्दर वाणी से बोले ॥२॥ जे अघ मातु-पिता-सुत मारे । गाइगोठ महिसुर-पुर जारे ॥ जे अघ तिथ-बालक-बध कीन्हे । भीत महीपति माहुर दीन्हे ॥३॥ जो पाप माता पिता और पुत्र के मारने से होता है, गोशाला तथा ब्राह्मणों का गाँव जलाने से होता है। जो पाप स्त्री और बालक की हत्या करने से, मित्र तथा राजा को विष देने से होता है ॥३॥ जे पातक उपपातक अहहीं। करम बचन मन भव कबि कहहीं । ते पातक माहि होहु बिधाता । जौँ यह हाइ मोर मत माता ॥४॥ जो बड़े पाप और छोटे पाप हैं कर्म, वचन तथा मन से उत्पन्न होना कवि लोग कहते हैं। हे माता! यदि यह मेरा मत हो तो विधाता (को साक्षी देता हूँ) मुझे वही पाप लगे ॥ दो०-जे परिहरि हरि-हर-चरन, भजहिं भूत-गन घार । तिन्ह कई गति माहि देउ बिधि, जाँ जननी मत मार ॥ १६ ॥ जो विष्णु और शिवजी के चरणों को छोड़ कर भयानक जीवों वा पिशाचों की सेवा करते हैं । हे माता ! यदि इसमें मेरी सलाह हो तो ब्रह्मा मुझे उनकी गति दें ॥१६॥ ६७