पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९२

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. द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५३१ चौ०-राम प्रान तँ प्रान तुम्हारे। तुम्ह रघुपतिहि प्रान नैं प्यारे ॥ बिधु विष चवह स्रवइ हिम आगी। होइ बारिचर बारि बिरागी ॥१॥ रामचन्द्र तो तुम्हारे प्राणों के भी प्राण हैं और तुम रघुनाथजी को प्राण से बढ़ कर प्यारे हो । चाहे चन्द्रमा विष चुमाने लगे, पाला से आग बहने (निकलने) लगे और मछली पानी से प्रीति छोड़ दे ॥१॥ भरतजी और रामचन्द्रजी परस्पर उपमेय उपमान हैं, तीसरी सहश वस्तु का अभाव है। यह 'उपमेयोपमा अलंकार' है । राजापुर की प्रत्ति में 'राम प्रानदु वें प्रान तुम्हारे पाठ है। किन्तु एक अक्षर 'हु' अधिक हो जाने से छन्द की गति में लघु उच्चारण करने पर भी अन्तर पड़ता है । इसीसे सभा 'की प्रति के पाठ को हमने प्रधान में रक्ला है। कथा-प्रेमी सज्जन चाहे जिसको अपनावें। भये ज्ञान बरु मिटइ न माहू । तुम्ह रामहिँ प्रतिकूल न होहू ॥१॥ मत तुम्हार यह जो जग कहही । सो सपनेहुँ सुख सुगति न लहहीं ॥२॥ चाहे ज्ञान होने पर भी अज्ञान न नष्ट हो, पर श्राप रामचन्द्र के प्रतिकूल नहीं हो सकते । जो संसार में कहेंगे कि यह तुम्हारा मत है, वे स्वप्न में भी सुख और सुन्दर गति नहीं पायेंगे ॥२॥ चन्द्रमा का विष चुश्राना, पाले से अग्नि निकलना, मछली का पानी से विरागी होना, शान होने पर प्रशान का न मिटना 'विरोधाभास अलंकार है। अस कहि मातु भरत हिय लाये । थन पय स्रवहिँ नयन जल छाये ॥ करत बिलाप बहुत एहि भाँती । बैठेहि बीति गई सब राती ॥३॥ ऐसा कह कर माता ने भरतजी को हृदय से लगा लिया, उनके स्तनों से दूध बहने लगा. और आँखों में आँसू भर पायो। इस तरह बहुत सा विलाप करते सारी रात बैठे ही बैठे बीत गई ॥३॥ बामदेउ बसिष्ठ तब आये । सचिव महाजन सकल बोलाये। मुनि बहु भाँति भरत उपदेसें । कहि परमारथ बचन सुदेसे ॥४॥ तब वामदेव और वशिष्ठजी आये, उन्होंने मन्त्रियों और समस्त रईसों को बुलवाये। मुनि ने बहुत तरह सुन्दर समयानुकूल परमार्थ के वचन कह कर भरतजी को उपदेश दिया nen दो-तात हृदय धीरज धरहु, करहु जो अवसर आज ॥ उठे भरत गुरु बचन सुनि, करन कहेंउ सब साज ॥१६॥ हे तात! मन में धीरज धारण करो और आज जो करने का अवसर है वह फरो। गुरु के वचनों को सुन कर भरतजी उठे और सब तैयारी करने को कहा ॥ १६ ॥ सभा की प्रति में 'करन कहेड'सब काज' पाठ है।