पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९३

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रामचरित-मानस । ५३२ चौ०-नृप-तनु बेद-बिहित अन्हवावा!! परम विचित्र विमान बनाया । गहि पद भरत मातु सब राखी । रहीं राम-दरसन अभिलासी ॥१॥ राजा के शरीर को वेदोक्ति स्नान कराया और अत्यन्त विलक्षण विमान (प्रथ) वन- वाया। भरतजी ने सव मातामों के पावों में पढ़ कर उन्हें सती होने से रोक रग्बो, रामचन्द्र जी के दर्शन की अभिलाषा से वे सब रह गई ॥१॥ चन्दन अगर भार बहु आये। अमित अनेक सुगन्ध सुहाये ॥ सरजु-तीर रचि चिता बनाई । जनु सुर-पुर-सोपान सुहाई ॥२॥ चन्दन और अगर के काठ बहुत काम आये और असंश्यों भाँति भाँति के सुहावने सुग. न्धित द्रव्यों से सज कर सरजू के किनारे चिता बनाई गई, वह ऐसी मालूम होती है मानों देवलोक की सीढ़ी हो ॥२॥ स्वर्ग जाने के लिये कमी किसी को संसार में निसेनी नहीं तैयार हुई । यह कवि की कल्पना मात्र 'अनुक्तविषया वस्तूत्प्रेक्षा अलंकार है। एहि बिधि दाहक्रिया सब कीन्ही । विधिवल न्हाइ तिलाञ्जलि दीन्ही॥ सोधि सुमृति सब बेद पुराना । कीन्ह भरत दसगात विधाना ॥३॥ इस प्रकार सवने दाह-किया की और विधिवत स्नान कर के तिलाञ्जलि दिये । सम्पूर्ण स्मृतियाँ, वेद और पुराणों में खोज कराकर भरतजी ने दशगान विधान किये ॥३॥ दशगात्र-मृतक सम्बन्धी कर्म को कहते हैं, जैसे-पिण्डदान, तिलालि, क्षौरकर्म, विविध प्रकार के दान उपदान इत्यादि। जहँ जस मुनिबर आयसु दीन्हा । तहँ तस सहसभाँति सब कीन्हा । भये बिसुद्ध दिये सब दाना । धेनु बाजि गज बाहन नाना ॥४॥ मुनिवर ने जहाँ जैसी आज्ञा दी, वहाँ वैसा सम (भरतजी ने) सहस्रों प्रकार से किया। गैया, घोड़े, हाथी, नाना तरह की सवारियों और समस्त दान (अन्न,वस्त्राभूषणादि ग्यारह- हवें दिन) दे कर शुद्ध हुए hen दो०-सिंहासन भूषन बसन, अन्न धरनि धन धाम । दिये भरत लहि भूमिसुर, भे परिपूरन-काम ३१७०११ सिहालन, गहने, कपड़े, अनाज, धरती, धन और घर भरतजी ने दिया उसको, पाकर ब्रामण लोग इच्छापूर्ण हो (सन्तुष्ट) हुए ॥१७०।। चौ-पितु-हितभरतकोन्हि जसि करनी। सेो मुख लाख जाइ नहिबरनी॥ सुदिन सोधि मुनिबर तब आये।सचिव महाजन सकल बोलाये ॥१॥ पिता के लिये भरतजी ने जैसी करनी की; लाखो मुख से नहीं वर्णन की जा सकती।