पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९४

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५३३ तब अच्छा दिन सोध कर मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी (राजसभा में) भाये और सम्पूर्ण मस्त्रियों तथा उत्तम जनों को बुलवाया ॥१॥ बैठे राजसभा सब जाई। पठये, बोलि भरत दोउ भाई ॥ मरत बसिष्ठ निकट बैठारे। नीति-धरम-मय बचन उचारे ॥२॥ सब जाकर राजसभा में बैठे, (तब गुरुजी ने) भरत-शत्रुहन दोनों भाइयों को बुलवा भेजा बशिष्ठजी ने भरतजी को पास में बैठा लिया और नीति तथा धर्म से मिले हुए बचन वोले ॥२॥ प्रथम कथा सब मुनिबर बरनी । कैकइ कुटिल कीन्हि जसि करनी ॥ भूप धरम-व्रत सत्य सराहा । जेहि तनु परिहरि प्रेम निबाहा ॥३॥ मुनिश्रेष्ठ-वशिष्ठजी ने पहले वह सब कथा वर्णन की, जैसी कुटिल करनी केकयी ने की थी। फिर राजा के धर्मनित और सत्य की सराहना की जिन्होंने शरीर त्याग कर प्रेम को निवाहा ॥३॥ कहत राम-गुन-सील-सुभाऊ । सजल-नयन पुलके मुनिराज ॥ बहुरि लखन-सिय प्रीति बखानी । सोक-सनेह मगन मुनि-ज्ञानी ॥४॥ रामचन्द्र के गुण, शील और स्वभाव कहते हुए मुनिराज के नेवा में जल भर आया पवम् शरीर पुलकित हो गया। फिर लक्ष्मणजी और सीताजी की प्रीति बखानते हुए ज्ञानी- मुनि शोक और स्नेह में डूब गये ॥४॥ शानीमुनि का शोक और स्नेह मैं मग्न होना 'विरोधाभास अलंकार' है। दो०-सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाम जीवन मरन, जस अपजस विधि हाथ ॥११॥ मुनिनाथ ने दुखी होकर कहा कि- हे भरत ! सुनो, भाषी बड़ी जबरदस्त है। हानि, लाभ, जीवन, मरण, यश और अपयश का विधान उसी के हाथ है (उसकी करतूत पर किसी की कुछ नहीं चलती) ॥१७१ ॥ हानि-लाभ, जीना मरना और यश अपयश जीव को भावी की इच्छानुसार होता है। यह सिद्ध अर्थ है । गुरूजी फिर उसी अर्थ का विधान करते हैं, 'यह विधि अलंकार' है। विलखिर श्लेषार्थी शब्द द्वारा गुरुजी एक गुप्त अर्थ दूसरा भी प्रगट करते हैं कि-हे भरत ! ऐसा ख्याल न करो कि मेरी विद्यमानता में इतने बड़े अनर्थ अयोध्या में कैसे हुए ? मैंने खूब विचार कर देख लिया कि नगरवासियों की हानि; धनवासियों को लाभ, सुग्रीवादि को जीवन, दशरथ रावणादि का मरण, हनूमानादि के यश और केकयी को कलंक अवश्यम्भावी है, इससे कुछ कर न सका 'यह विवृतोक्ति अलंकार' है।