पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९५

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५३४ रामचरित मानस । चौध-अस बिचारि केहि देइय दोसू । व्यरथ काहि पर कोजिय रोस् । तात बिचार करहु मन माहीं । सोच जोग दशरथ-नूप नाहीं ॥१॥ ऐसा विचार कर किसको दोष दिया जाय और व्यर्थ ही किस पर क्रोध किया जाय। हे पुत्र ! मन में विचार करो, राजा दशरथ सोचने योग्य नहीं हैं ॥१॥ सोचिय विप्र जो बेद-विहीना । तजि निज-धरम विषय लयलीना ॥ सोचिय नृपति जो नीति न जाना जेहिन प्रजा प्रिय प्रान समाना ॥२॥ जोब्राह्मण वेद न जानता हो और अपने धर्म त्याग कर विषयों में लवलीन हो, वह सोचने योग्य है। जो राजा नीति नजानता और जिसको प्रजा प्राण के समान प्यारो न हो, वह सोचने योग्य है ॥२॥ सोचिय बयस कृपन धनवानू । जो न अतिथि-सिव-भगति सुजानू ॥ सोच सूद विप्र अवमानी। मुखर मान-प्रिय ज्ञान-गुमानी ॥३॥ जो धनी होकर भी कस हो और अतिथि-सत्कार तथा शिवभक्ति में सुचतुर न हो वह वैश्य सोचने योग्य है । जो ब्राह्मण का अनादर करता हो, फवादी, प्रतिष्ठा का इच्छुक और ज्ञान का घमण्डी हो वह शूद्र सोचने योग्य है ॥३॥ सोचिय पुनि पति-बञ्चक नारी । कुटिल कलह-प्रिय इच्छा चारी॥ सोचिय बटु निज-प्रत परिहरई । जो नहिं गुरु आयुस अनुसरई ॥१॥ फिर पति को ठगनेवाली (कुलटा) स्त्री, कुटिला कलहमिनी और स्वेच्छाचारिणी लिये सोच करना चाहिये । जो ब्रह्मचारी अपना व्रत त्याग कर गुरु की आशा के अनुसारन चलता हो वह सोचने योग्य है ॥४॥ दो०-सोचिय गृही जो मोह बस, करइ करम-पथ त्याग । सोचिय जती प्रपञ्च-रत, बिगत बिवेक-बिराग॥ १२ ॥ जो गृहस्थ अज्ञानता से कम-मार्ग का त्याग करदे, वह सोचने योग्य है । जो सन्यासी झान वैराग्य से हीन संसार के झंझटों में अनुरक्त हो, वह सोचने योग्य है ॥ १७२ ।। चौ०-बैषानस सोड सोचइ जोगू । तप बिहाइ जेहि भावइ भोगू॥ सोचिय पिसुन अकोरन-क्रोधी । जननिजनक गुरुबन्धु बिरोधी ॥१॥ वह वाणप्रस्थ सोचने योग्न है जिसको तप छोड़ कर विषय-माँग अच्छा लगे। घुग- ख़ोर, विना कारण ही क्रोध करनेवाला और माता-पिता, गुरु, भाई का वैरी सोचने सब बिधि सोचिय पर-अपकारी। निज-तनु-पोषक निरदय मारी। सोचनीय सबही विधि सोई। जो न छाडि छल हरिजन हाई ॥२॥ पराये की धुराई करनेवाला, अपने ही शरीर का पोषक और भारी निर्दय मनुष्य सब योग्य है ॥१॥