पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/५९९

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। ५३६ रामचरित मानस । उस समय भरतनी की यह दशा देखते सभी को अपने शरीर की सुध भूल गई । तुलसी. दासजी कहते हैं कि सम्पूर्ण सभासद आदर से सहज स्नेह-महिमा की सराहना करते हैं ॥७॥ सो-भारत कमल कर जोरि, धीर-धुरन्धर धीर धरि। बचन अमिय जनु बोरि, देत उचित उत्तर सबहि ॥१७॥ धैर्यवानों में प्रधान भरतजी धीरज धारण कर के कर-कमलों को जोड़ वचन बोले। ऐसा मालूम होता है मानो अमृत में सराबोर सद को उचित उत्तर देते हो ॥ १७५ ॥ - वचन का अमृत में सराबोर कहना ऋवि की कल्पनामात्र है, क्योंकि वचन ऐसा पदार्थ नहीं जो रस में बोरा जा सके। यह 'अनुक्तविषया वस्तूप्रेक्षा अलंकार' है। चौ-मोहिउपदेसदीन्ह गुरुनीका । प्रजा सचिव सम्मत संबही का ॥ भातुउचितधरिआयसुदीन्हा। अवसि सीस धरि चाहउँ कीन्हा॥१॥ गुरुजी ने मुझे उत्तम उपदेश दिया और यही लम्मति प्रजा, मन्त्री श्रादि सब की है। माताजी ने उचित समझ कर वही श्राचा दी तो अवश्य ही शिरोधार्य कर उसे मैं करना चाहता हूँ॥१॥ गुरु-पितु-मातु-स्वामि हितबानो । सुनि मन मदित करिय भलिजानी॥ उचित कि अनुचित किये बिचारू । धरम जाइ सिर पातक-भार ॥२॥ पयोंकि गुरु, पिता, माता और स्वामी को कल्याण भरी वाणी सुन कर उसको अच्की समझ कर प्रसा मन से करना चाहिये । उचित है या अनुचित ऐसा विचार करने से धर्म नष्ट होता है और सिर पर पापं का बोझ चढ़ता है ॥ २॥ पहली चौपाई में साधारण बात कह कर फिर दूसरी चौपाई में विशेष सिद्धान्तों से उसके समर्थन का भाव 'अर्थान्तरन्यास अलंकार' है। तुम्ह तउ देहु सरल सिख सोई। जो आचरत मार भल हाई॥ जद्यपि यह समुझत हउँ नीके। तदपि होत परितोष न जीके ॥३॥ आप सब तो मुझे वही सीधी शिक्षा देते हैं जो करने से मेरी भलाई हो । यद्यपि यह अच्छी तरह समझता हूँ, तो भी मन सन्तोष नहीं होता है ॥३॥ अब तुम्ह बिनय मोरि सुनि लेहू। मोहि अनुहरत सिखावन देहू ॥ ऊतरु देउँ छमब अपराधू । दुखित दोष-गुन गनहि न साधू ? अव श्राप लोग मेरी विनती को सुन लीजिये और मेरे योग्य शिक्षा दीजिये । उत्तर देता हूँ; अपराध क्षमा कीजिये, क्योंकि सज्जन दुखीजनों के दोष गुण को नहीं गिनते ॥४॥