पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६००

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द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । दो०-पितु सुरपुर सिय-राम बन, करन कहहु मेाहि राज । एहि ते जानहु मार हित, कै आपन बड़ काज ११७७॥ पिताजी देवलोक गये, सीताजी और रामचन्द्रजी वन में निवास करते हैं, (इतने पर भी आप लोग ) मुझे राज्य करने को कहते हैं ? भता यह तो कहिये कि इससे मेरा हित समझते हो या कि अपना कोई बड़ा कार्य होना अनुमान करते हो ॥ ॥१७७॥ राजा होने में यदि मेरा कल्याण समझते हो तो यह भूल है, क्योंकि-- चौ०-हित हमार सिय-पति-खेवकाई । सेो हरि लीन्ह भातु-कुटिलाई ॥ अनुमानि दोख मन माहीं । आन उपाय मार हित नाही॥१॥ मेरा हित तो सीतानाथ की सेवकाई में है, वह माता की कुटिलता ने हर लिया। मैं ने विचार फर देखा कि दूसरे उपायों से मेरी भलाई नहीं है ॥३॥ शोक-समाज-राज केहि लेखे । लखन-राम-सिय-पद धिनु देखे। बादि बसन बिनु भूषन मारू । बादि बिरति बिनु ब्रह्म-बिचारू ॥२॥ लक्ष्मण, रामचन्द्र और सीताजी के चरणों को बिना देखे शोक का समाज राज्य किस गिनती में है ? बिना वस्त्र के बोझ गहना व्यर्थ है और बिना ब्रह्मज्ञान के वैराग्य वृथा है ॥२॥ रुज सरीर बांदि बहु भोगा । बिनु हरिभगति जाय जप जोगा। जाय जीव बिनु देह सुहाई । बादि मोर सब बिनु रघुराई ॥३॥ रोगी शरीर हो तो बहुत सा भोग-विलास वृथा है, बिना हरिभक्ति के जप योग व्यर्थ है। बिना जीव के सुहावनी देह निरर्थक है, उसी प्रकार बिना रघुनाथजी के मेरा सर्व निष्फल है ॥३॥ वस्त्र के विना गहना पहनना, ब्रह्माज्ञान के बिना वैराग्य, बिना जीव के देह की सुन्दरता श्रादि एक के बिना दूसरे को हीन कहना 'विनोक्ति अलंकार' है। नाउँ राम पहिँ आयसु. देहू । एकहि आँक मार हित एहू ॥ हि पकरि भल आपन चहहू । साउ सनेह जड़ता बस कहहू ॥४॥ मुझे आज्ञा दीजिये कि मैं रामचन्द्रमओ के पास जाऊँ, मेरा हित तो एक इसी बात से है। यदि मुझे राजा बना कर अपना भला चाहते हो? वह स्नेह के कारण अज्ञानता वश कहते हो || -कैकइ सुअन कुटिल मति, राम-बिमुख गत-लाज । तुम्ह चाहत ' सुख मोह बस, मोहि से अधम के राज ॥१८॥ कुटिल बुद्धिवाली केकयी का मैं पुत्र राम-विमुखी और लाज से रहित हूँ। मुझ से अधम के राज्य में प्रशानं वश आम लव सुख चाहते हैं ? ॥१७॥