पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०१

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रामचरित मानस । ५४० दुखदाई राज्य होने के लिये राजा का अधम होना ही पर्याप्त कारण है, तिस पर अन्य प्रबल हेतुओं की उपस्थिति 'द्वितीय समुच्चय अलंकार है। चौ०-कहउँ साँच सब सुनि पतियाहू । चाहिय धरम-सोल नरनाहू ॥ भोहि राज हठि देइहहु जबहीं । रसारसातल जाइहि तबहीं ॥१॥ मैं सब सत्य कहता हूँ सुन कर विश्वास करो कि राजा धर्मात्मा होना चाहिये । ज्यों ही हठ कर मुझे राज्य दोगे, त्यो ही धरती रसातल को चली जायगी ॥१॥ रसा' शब्द दो बार आया है; किन्तु अर्थ दोनों का पृथक पृथक होने से 'यमक अलं- कार है। राजापुर की प्रति में 'राज रसातल जाइहि तयहाँ' पाठ है। मोहि समान को पाप निवासू । जेहि लगि सीय-राम-प्रनबासू। राय राम कह कानन दीन्हा । बिछुरत गमन अमरपुर कीन्हा ॥ २॥ मेरे समान पाप का स्थान कौन है ? जिसके कारण सीताजी और रामचन्द्रजी को बनधास हुआ है। राजा ने रामचन्द्रजी को वन दिया, उनके विछुड़ते ही आप स्वर्ग यात्रा की ॥२॥ मैं सठ सब अनरथ कर हेतू । बैठ पात सब सुनउ सचेतू बिनु. रघुबीर बिलोकि अबासू । रहे प्रान सहि जग उपहासू ॥३॥ मैं ही दुष्ट सब अनर्थों का कारण हूँ, इसी से सावधान वैठकर सारी बाते सुनता हूँ। विना रघुनाथजी के घर को देख मेरे प्राण जगत की निन्दा सह कर शरीर में बने लक्षणामूलक प्रस्तावविशेष व्यह है कि जय इतनी बड़ी लोकनिन्दा सह; कर प्राण शरीर में बने हैं, तब आप लोगों का राज्य भागने के लिये प्राग्रह करना उससे बढ़ कर अपवाद नहीं है। राम पुनीत विषय-रस रूखे । लोलुप भूमि भोग के भूखे ॥ कहँ लगि-कहउँ हृदयकठिनाई। निदरि कुलिस जेहि लही बड़ाई ॥es रामचन्द्रजा तो पवित्र और विषयानन्द से उदासीन है, लालची धरती तथा भोग-विलास के भूने होते हैं । मैं अपने हृदय की कठोरता को कहाँ तक कहूँ, जिसने वज्र का तिरस्कार कर बड़ाई पाई है ॥५॥ कठोरता में वज्र का निरादर कर हृदय ने बड़प्पन पाया 'पञ्चम प्रतीफलकार' है। यहाँ भी लक्षण-मूलक प्रस्तावविशेष व्यङ्ग है कि स्वामी राज्य से उदासीन हैं और मैं उसका लोभी हूँ। इसी से सभी हितचिन्तक एक स्वर से राज्य-भोग को कहते हैं। यह सुन कर छाती नहीं फटती है, इसने कठिनता में वज़ को मात कर रक्खा है। ॥ ही हैं ॥३॥