पृष्ठ:रामचरितमानस.pdf/६०२

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1 द्वितीय सोपान, अयोध्याकाण्ड । ५४१ दो-कारन तें कारज कठिन, होइ दोस नहि मार। कुलिस अस्थि ते उपल ते, लोह कराल कठोर ॥ १७ ॥ कारण से कार्य कठोर होता ही है, इसमें मेरा दोष नहीं । वज्र हड्डी से और लोहा पत्थर ले भयङ्कर कठिन होता है ॥१७६ ॥ भरतजी ने पहले सामान्य बात कही कि कारण से कार्य कठिन होता ही है, अर्थात् केकयी से में उत्पन्न हूँ तो उससे बढ़ कर मेग कठोर होना ठीक ही है। इसको विशेष प्रमाण द्वारा पुष्ट करना कि हड्डी से वज्र, पत्थर से लोहा पैदा होता है पर उससे भीषण कठोर होता है, यह 'अर्थान्तरन्यास अलंकार है। चौ०-कैकेई-भवं तनु अनुरागे। पाँवर प्रान अघाई अभागे ॥ जौं प्रिय-बिरह प्रान प्रिय लागे । देखब सुनब बहुत अब आगे॥१॥ केकयी से उत्पन शरीर के प्रेमो मेरे नीच प्राण दुर्भाग्य से अघावेंगे। यदि प्यारे का वियोग प्राणों को अच्छा लगा है तो अभी श्रागे बहुत कुछ देखूगा और सुनूँगा ॥१॥ लखन-राम सिय कह बन दोन्हा । पठइ अमरपुर पति हित कीन्हा॥ लीन्ह बिधवपन अपजस आपू। दीन्हेउ प्रजहि सोक सन्तापू॥२॥ लक्ष्मण, रामचन्द्रजी और साताजी को वनवास दिया, स्वर्ग भेज कर पति की भलाई की। श्राप विधघापन और कलङ्क लिया, प्रजा को शोक और सन्तोप दिया ॥२॥ माहि दीन्ह सुख सुजस सुराजू । कीन्ह कैकई सब कर काजू । एहि ते मार काह अब नीका । तेहि पर देन कहहु तुम दीका ॥३॥ मुझे सुख. सुयश और सुन्दर राज्य दिया, केकयी ने सब का काम किया। इससे श्रम अब मेरे लिये क्या होगा ? तिस पर आप लोग राज-तिलक करने को कहते हैं ॥३॥ केकयीने रामचन्द्र, लक्ष्मण और जानकीजी को वन भेज कर उनकी भलाई की। पति को देवलोक भेज कर उनका.कल्याण किया । मुझे सुख, सुयश, स्वराज्य दिया। इससे बढ़ कर मेरी भलाई क्या होगी जो आप सब टीको देने को कहते हैं। यहाँ वाच्यार्थ अर्थान्तर द्वारा भासित होता है कि जिस राज्य के लोभ में पड़ कर केकयी ने सारे अनर्थों को कर डाला, उसी को आप सब मुझे स्वीकार करने को कहते हैं बड़े स्त्रेद की बात है। यह लक्षणामूलक अवि- वक्षितषाच्य ध्वनि है। कैकइ जठर जनमि जग माहीं। यह मोहि कहँ कछु अनुचित नाहीं॥ भारि बात सब बिधिहि बनाई। प्रजा पाँच कत करहु सहाई ॥४॥ केकयी के उदर से मैं संसार में जन्मा हूँ तो यह मुझ को कुछ अयोग्य नहीं है। मेरी घात सब विधाता ही ने बनाई है, फिर प्रजा और पञ्च काहे को सहाय करते हो ॥४॥